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ग़ज़ल
मस्त हो कर उस की ख़ुशबू से गिरा था बच गया
जब सँभलने को वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-सा पकड़ी गई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
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नज़्म
क्या गुल-बदनी है
गेसू हैं कि गुल-बाज़ी-ए-मुश्क-ए-ख़ुतनी है
क्या गुल-बदनी गुल-बदनी गुल-बदनी है