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ग़ज़ल
इलाही नहर-ए-रहमत बह रही है इस में डलवा दे
गुनहगारों के इस्याँ बाँध कर दामान-ए-महशर में
मुज़्तर ख़ैराबादी
नज़्म
झुलसी सी इक बस्ती में
उजड़ी मंडी, लाग़र कुत्ते, टूटे खम्बे ख़ाली खेत
क्या इस नहर के पुल के आगे ऐसा शहर-ए-ख़मोशाँ था
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
सोच रहा था ग़म-नसीब बिगड़ी बने तो किस तरह
रहमत-ओ-लुत्फ़-ए-किर्दगार बन गए आसरा कि यूँ