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अब वलवले इश्क़ के तमन्ना में नहीं
मजनूँ कोई जुस्तुजू-ए-लैला में नहीं
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
उठी है जो क़दमों से वो दामन से अड़ी है
क्या क्या निगह-ए-शौक़ पे ज़ंजीर पड़ी है
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
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ग़ज़ल
आँखें खुली थीं सब की कोई देखता न था
अपने सिवा किसी का कोई आश्ना न था
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
जब अश्क तिरी याद में आँखों से ढले हैं
तारों के दिए सूरत-ए-परवाना जले हैं
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं
वो क़ाफ़िले जो तिरी रहगुज़र से गुज़रे हैं
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
हर एक नक़्श तिरे पाँव का निशाँ सा है
हर एक राहगुज़र तेरा आस्ताँ सा है
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
नज़र को हाल-ए-दिल का तर्जुमाँ कहना ही पड़ता है
ख़मोशी को भी इक तर्ज़-ए-बयाँ कहना ही पड़ता है
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
नज़्म
वक़्त-ए-मुरव्वत
अलस्सबाह कि थी काएनात सर-ब-सुजूद
फ़लक पे शोर-ए-अज़ाँ था ज़मीं पे बाँग-ए-दुरूद
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है