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ग़ज़ल
'इंशा' जी क्या उज़्र है तुम को नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ नज़्र करो
रूप-नगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इक इम्तिहान-ए-वफ़ा है ये उम्र भर का अज़ाब
खड़ा न रहता अगर ज़लज़लों में क्या करता
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
चलते हैं कू-ए-यार में है वक़्त-ए-इम्तिहाँ
हिम्मत न हारना दिल-ए-बीमार देखना
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
पैमाँ की नज़्र हो गए चैन ओ सुकूँ, क़रार
लेकिन निभा नहीं है निभाने के बअ'द भी
अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
ग़ज़ल
इक लख़्त-ए-दिल बचा था मगर वो भी ऐ 'नज़र'
आख़िर को नज़्र-ए-दीदा-ए-ख़ूँ-नाबा-यार था