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ग़ज़ल
निगाह-ए-मस्त से ओझल हैं मंज़िलें दिल की
हैं अपनी आख़िरी साँसों पे चाहतें दिल की
चित्रा भारद्वाज सुमन
नज़्म
कैफ़ियत
ऐ निगाह-ए-मस्त अपना सा ही मस्ताना बना
मय बना दे रूह को और जाँ को पैमाना बना
अशरफ़ बाक़री
ग़ज़ल
उस निगाह-ए-मस्त से जब वज्द में आती हूँ मैं
कैफ़-ओ-रंग-ओ-नूर की दुनिया पे छा जाती हूँ मैं
नजमा तसद्दुक़
ग़ज़ल
निगाह-ए-मस्त का कैफ़-ए-ख़ुमार क्या कहिए
बहार गोया है अंदर बहार क्या कहिए
सलाहुद्दीन फ़ाइक़ बुरहानपुरी
ग़ज़ल
निगाह-ए-मस्त-ए-साक़ी का सलाम आया तो क्या होगा
अगर फिर तर्क-ए-तौबा का पयाम आया तो क्या होगा