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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं या-रब दिल के पार
जो मिरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्गाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
तुलू-ए-इस्लाम
नज़र को ख़ीरा करती है चमक तहज़ीब-ए-हाज़िर की
ये सन्नाई मगर झूटे निगूँ की रेज़ा-कारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
हैं फूलों की डाली पे बाँहें तुम्हारी
हैं ख़ामोश जादू निगाहें तुम्हारी
ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
क्या मुँह पर उस ने रख लिए आँखें चुरा के हाथ
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
मैं नज़र से पी रहा हूँ ये समाँ बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए