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ग़ज़ल
ऐ 'अना' तुम मत गिराना अपने ही किरदार को
उन को कहने दो कि ख़ुद-दारी कहाँ आ गई
नफ़ीसा सुल्ताना अंना
ग़ज़ल
तलब की राह में पा-ए-अना से बारहा उलझा
कभी इंकार का हल्क़ा कभी इक़रार का हल्क़ा
अब्दुल मन्नान तरज़ी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
है सौ अदाओं से उर्यां फ़रेब-ए-रंग-ए-अना
बरहना होती है लेकिन हिजाब-ए-ख़्वाब के साथ