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ग़ज़ल
फिर परेशाँ-हाल है क़ल्ब-ओ-जिगर क्या कीजिए
अब इलाज-ए-गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर क्या कीजिए
पंडित विद्या रतन आसी
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ों का इश्क़ क्यूँकर उन से बयाँ करूँगा
हाल-ए-दिल-ए-परेशाँ गूँगे का ख़्वाब होगा
वज़ीर अली सबा लखनवी
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ग़ज़ल
रहे कोई परेशाँ-हाल-ओ-महरूम-ए-ख़ुशी कब तक
सुलगती डूबती सहमी हुई सी ज़िंदगी कब तक
उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
क्या कर सकें दिवाने हाल-ए-दिल-ए-परेशाँ
ज़ुल्फ़ों के बाल उन के जब आप लट रहे हों