aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "piir-e-josh-e-shabaab"
मकतबा-ए-हुसन-ओ-शबाब, दिल्ली
पर्काशक
करवान-ए-जोश, दिल्ली
जोश-व-फ़िराक़ लिटरेरी सोसाइटी, इलाहाबाद
मक्तबा शहाब देवबंद
मक्तबा-ए-शादाब, हैदराबाद
अंजुमन परवाना-ए-शब्बीर, हैदराबाद
मद्ह-ए-सहाबा कमेटी, लखनऊ
मक्तबा शोला-ओ-शबनम, दिल्ली
अंजुमन तहफ्फुज़-ए-नामूस-ए-सहाबा, गुलबरगा
अराकीन-ए-बज़्म-ए-सीरत-ए-सहाबा कमेटी, बनारस
इदारा हलक़-ए-फ़िक्र-उ-दानिश, कराची
मैनेजर शबाबे-उर्दू, लाहौर
अंजुमन शबाब-ए-इस्लाम, लखनऊ
जश्न-ए-सालगिरह जोश मलसियानी कमेटी, दिल्ली
मीर वारिस अली इब्न-ए-मीर हिदायत अली पीरज़ादा
लेखक
पीर-ए-जोश-ए-शबाब क्या जानेशोरिश-ए-इज़्तिराब क्या जाने
दिल से जोश-ए-शबाब जाता हैज़ीस्त से इज़्तिराब जाता है
मस्त जोश-ए-शबाब हैं हम लोगआप अपना इ'ताब हैं हम लोग
तबीअत-ए-बे-नियाज़-ए-जोश-ए-वहशत हो तो सकती हैजो तुम चाहो तो बेहतर मेरी हालत हो तो सकती है
हुस्न मरहून-ए-जोश-ए-बादा-ए-नाज़इश्क़ मिन्नत-कश-ए-फ़ुसून-ए-नियाज़
ख़ुदा-ए-सुख़न कहे जाने वाले मीर तक़ी मीर उर्दू अदब का वो रौशन सितारा हैं, जिन्होंने नस्ल-दर-नस्ल शायरों को मुतास्सिर किया. यहाँ उनकी ज़मीन पर लिखी गई चन्द ग़ज़लें दी जा रही हैं, जो मुख़्तलिफ़ शायरों ने उन्हें खिराज पेश करते हुए कही.
अगर आपको बस यूँही बैठे बैठे ज़रा सा झूमना है तो शराब शायरी पर हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए। आप महसूस करेंगे कि शराब की लज़्ज़त और इस के सरूर की ज़रा सी मिक़दार उस शायरी में भी उतर आई है। ये शायरी आपको मज़ा तो देगी ही, साथ में हैरान भी करेगी कि शराब जो ब-ज़ाहिर बे-ख़ुदी और सुरूर बख़्शती है, शायरी मैं किस तरह मानी की एक लामहदूद कायनात का इस्तिआरा बन गई है।
Josh-e-Shabab
माहिर देहलवी
Intikhab-e-Kulliyat-e-Josh
फ़ज़ल ऐ इमाम
संकलन
Intikhab-e-Kalam-e-Josh
जोश मलीहाबादी
Kulliyat-e-Rubaiyat-e-Josh
रुबाई
Deewan-e-Chamnistan-e-Josh
अहमद हसन ख़ान जोश
दीवान
Mukhtasarat-o-Muntashirat-e-Josh
सुख चैन सिंह
लेख
Nafsiyat-e-unfuvan-e-Shabab
Peer-e-Karwan
एम. यासीन कुद्दुसी
Peer-e-Roomi-o-Mureed-e-Hindi
मोहम्मद इकराम चुग़ताई
Mohafiz-e-Shabab
माहिर अकबराबादी
Anees-e-Shabab
अज़ीम अब्बासी
Intikhab-e-Shad Peer-o-Meer
महमूदुल हसन
Unfuwan-e-Shabab Ke Marghoob Ashghal
मोहम्मद ज़फ़रूद्दीन
Josh-e-Mohabbat
Josh-e-Urdu
मेराज अहमद निज़ामी
ब-क़द्र-ए-जोश-ए-जुनूँ तार तार भी न कियावो पैरहन जिसे नज़र-ए-बहार भी न किया
मुझ से अफ़्सुर्दा न ऐ जोश-ए-बहाराँ होनाकैफ़ में भूल गया चाक-गरेबाँ होना
ज़िंदगी ऊँघ रही है ऐ 'जोश'किसी मुफ़्लिस का दिया हो जैसे
फिर न देखा तुझे ऐ 'जोश' सुकूँ से बैठाजब से उट्ठा है तू इस शोख़ के काशाने से
मुहाल था कि हम ऐ 'जोश' ज़िंदा रह सकतेफ़िराक़-ए-यार में इक रोज़ मर गए हम भी
न पेश नामा-ए-आमाल कर अभी ऐ 'जोश'हिसाब कैसा ये रोज़-ए-हिसाब से पहले
'जोश' धुँदलाता न हरगिज़ ये मिरा शीशा-ए-दिलगर्द उस की वो अगर रोज़ उतारा करते
'जोश' वो जो कहें करो तस्लीमफ़ाएदा कुछ भी पेश-ओ-पस में नहीं
ये कौन सा मक़ाम है ऐ जोश-ए-बे-ख़ुदीरस्ता बता रहा हूँ हर इक रहनुमा को मैं
ज़रा ऐ जोश-ए-ग़म रहने दे क़ाबू में ज़बाँ मेरीवो सुनना चाहते हैं ख़ुद मुझी से दास्ताँ मेरी
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