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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जितने हैं जामा-ज़ेब जहाँ में सभों के बीच
सजती है तेरे बर में सरापा क़बा-ए-ईद
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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ग़ज़ल
तिरे तेवर बदलते ही ज़माना हो गया दुश्मन
हिलाल-ए-ईद भी ज़ाहिर हुआ शमशीर की सूरत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
नज़्म
शाम है धुआँ धुआँ
उड़ती थी क़बा-ए-जिस्म वहीं
बेचैन हुई फिर रूह बहुत
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
क्या बताएँ पड़ गई है पाँव में ज़ंजीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बुरा हो बद-गुमानी का वो नामा ग़ैर का समझा
हमारे हाथ में तो परचा-ए-अख़बार था क्या था