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ग़ज़ल
मुंतज़िर आप के आने का कई दिन से हूँ
क्या है ताख़ीर क़दम-रंजा करो बिस्मिल्लाह
मीर मोहम्मदी बेदार
नज़्म
मुशाएरा
मुशाएरे में क़दम-रंजा आप फ़रमाएँ
तो अहल-ए-ज़ौक़ नाशिस्तों में आ के भर जाएँ
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
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हास्य
क़दम-रंजा न फ़रमाए अगर शीरीं कभी कॉलेज
तो मुँह लटका के चल देता है हर फ़रहाद छुट्टी पर
बद्र मुनीर
कुल्लियात
गोर पर मेरी पस-अज़-मुद्दत क़दम-रंजा किया
ख़ाक में मुझ को मिला कर मेहरबाँ बारे हुए
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
कितने दिल-सोख़्ता हम जम' हैं ऐ ग़ैरत-ए-शम’
कर क़दम-रंजा कि मज्लिस है ये परवानों की
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पए ताज़ीम-ए-दर्द उठता है ऐ नावक-फ़गन दिल में
क़दम-रंजा जो तेरे नावक-ए-बेदाद करते हैं
वसीम ख़ैराबादी
कुल्लियात
ख़्वार-ओ-ख़स्ता कई पामाल तिरी राह में हैं
कीजिए रंजा-क़दम उन को भी इज़्ज़त दीजे