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नज़्म
शिकवा
क़ौम अपनी जो ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर मरती
बुत-फ़रोशीं के एवज़ बुत-शिकनी क्यूँ करती
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जौन एलिया
हास्य
कोई कहता है कि बस उस ने बिगाड़ी नस्ल-ए-क़ौम
कोई कहता है कि ये है बद-ख़िसाल-ओ-बद-मआश
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
मर्सिया गोपाल कृष्ण गोखले
सदा ये आती है फल फूल और पत्थर से
ज़मीं पे ताज गिरा क़ौम-ए-हिन्द के सर से
चकबस्त बृज नारायण
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हास्य
खड़े हुक़्क़े ब-मआ-मीनार-ए-आतिश-दान तो देखो
ये क़ौम-ए-बे-ए-सर-ओ-सामान का सामान तो देखो
सय्यद ज़मीर जाफ़री
नज़्म
दिल्ली
वैदिक हों बोध जैन कि अहल-ए-जुनून हूँ
क़ौम-ए-अरब के हों कि मुसलमाँ के ख़ून हों
गुलज़ार देहलवी
नज़्म
ज़ंजीर-ए-ग़ुलामी
रहेगी एक क़ौम-ए-ग़ैर कब तक हुक्मराँ हम पर
कहाँ तक होंगी गूना-गूँ सितम-आराईयाँ हम पर
ज़ाहिदा खातून ज़ाहिदा
नज़्म
ऐ मेरे अर्ज़-ए-वतन
'इक़बाल' ने चाहा तुझे फ़िक्र से अपने
क़ौम-ए-मुस्लिम का बस तू ही इक ठिकाना है