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ग़ज़ल
जिस के हर क़तरे से रग रग में मचलता था लहू
फिर वही इक शय पिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
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नज़्म
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
हाथों में बस गई है साँसों में रच रही है
क़तील शिफ़ाई
नज़्म
साँवली
गूँज उठी ज़ेहन में उड़ते हुए भंवरो की सदा
रच गई रूह में गाती हुई कोयल की पुकार
क़तील शिफ़ाई
नज़्म
हम
रहीन-ए-गर्दिश भी मरकज़-ए-काएनात भी हूँ
जो मैं ने देखा है वो मिरे ख़ूँ में रच गया है
ज़िया जालंधरी
ग़ज़ल
करेगी अपने हाथों आज अपना ख़ून मश्शाता
बहुत रच-रच के तलवों में तिरे मेहंदी लगाती है