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ग़ज़ल
जा गिरा हूँ उठ के मस्जिद से मैं किस की राह में
ये कशिश किस के रुख़-ए-रश्क-ए-मह-ए-कामिल में है
नबी बख़्श नायाब
ग़ज़ल
जल्वा-फ़रमा कोई रश्क-ए-माह-ए-कामिल हो गया
अल्लह-अल्लह अब किसी क़ाबिल मिरा दिल हो गया
फ़ज़ल हुसैन साबिर
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ग़ज़ल
क्या अदावत है कि जिस दिन से हुआ हूँ ज़ख़्मी
देख जाता है वो रश्क-ए-मह-ए-कामिल मुझ को
तअशशुक़ लखनवी
ग़ज़ल
बे-हिजाब उन को शब-ए-वस्ल जो देखा मैं ने
चाँद से चेहरे को रश्क-ए-मह-ए-कामिल समझा
अब्दुल मजीद ख़्वाजा शैदा
ग़ज़ल
नूर से अपने बढ़ाते रहो 'कौकब' की ज़िया
हो मुबारक तुम्हें रश्क-ए-मह-ए-कामिल होना
कौकब मुरादाबादी
ग़ज़ल
कलेजा थाम लें दीदार-ए-जानाँ देखने वाले
बस अब पर्दा रुख़-ए-रश्क-ए-मह-ए-कामिल से उठता है