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ग़ज़ल
'महशर' अच्छा है ख़्याल-ए-रस्म-ओ-राह-ए-दिल मगर
बात नाज़ुक है ज़बाँ पर सोच कर लाया करें
महशर बदायुनी
क़ितआ
इन दिनों रस्म-ओ-रह-ए-शहर-ए-निगाराँ क्या है
क़ासिदा क़ीमत-ए-गुल-गश्त-ए-बहाराँ क्या है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
हम कहाँ और कहाँ रस्म-ओ-रह-ए-'आम-ए-ग़ज़ल
जाने किस शोख़ के सर जाएगा इल्ज़ाम-ए-ग़ज़ल
अब्दुर रऊफ़ उरूज
ग़ज़ल
ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है
ग़ालिबन कुछ शैख़ को ज़ोम-ए-ख़िरद-मंदी भी है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
कुल्लियात
छोड़ा जुनूँ के दौर में रस्म-ओ-रह-ए-इस्लाम को
तह कर सनम-ख़ाने चला हूँ जामा-ए-एहराम को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो
टूट जाती है हर इक ज़ंजीर वहशत भी तो हो