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नज़्म
एक शाम
बहे जा रहे हैं
कहीं दूर इन घोर अंधेरों में जो फ़ासलों की रिदाएँ लपेटे खड़े हैं
मजीद अमजद
नज़्म
वक़्त के कटहरे में
रंग-बिरंगे लफ़्ज़ों की बे-जान रिदाएँ मत डालो
सुनो तुम्हारे ख़्वाब तुम्हारा जुर्म नहीं हैं
बशर नवाज़
ग़ज़ल
इलाही तेरी बस्ती में ये कैसे लोग बस्ते हैं
सरों पर हाथ रखते हैं रिदाएँ छीन लेते हैं


