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नज़्म
आज़ादी
सुब्ह के ज़र्रीं तबस्सुम में अयाँ होती हूँ मैं
रिफ़अत-ए-अर्श-ए-बरीं से पर-फ़िशाँ होती हूँ मैं
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
ज़मीन मय-कदा-ए-अर्श-ए-बरीं मा'लूम होती है
ये ख़िश्त-ए-ख़ुम फ़रिश्ते की जबीं मा'लूम होती है
रियाज़ ख़ैराबादी
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नअत
जिस का मुश्ताक़ है ख़ुद अर्श-ए-बरीं आज की रात
उम्म-ए-हानी के वो घर में है मकीं आज की रात
माहिर-उल क़ादरी
ग़ज़ल
साज़-ए-हस्ती की सदा अर्श-ए-बरीं तक पहुँचे
ऐ ख़ुशा जिंस-ए-अमानत कि अमीं तक पहुँचे
सय्यद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल
अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं था