आसमान पर शेर
शायरी और साहित्य में
भाषा आम तौर पर शब्द अपने सामने के अर्थ और सामान्य अवधारणा से अलग होता है । आसमान भी इसी तरह का एक शब्द है । उर्दू की क्लासिकी शायरी तक में आसमान एक रूपक के तौर पर मौजूद है जो अपने सामने के अर्थ और सामान्य अवधारणा से बिल्कुल अलग है । इश्क़ के संदर्भ में आसमान एक शक्तिशाली किरदार है जो तमाम तरह की मुश्किलें पैदा करता है । आसमान को इंसानों के भाग्य के रूपक के तौर पर भी उर्दू शायरी ने पेश किया है । प्रेमी के सामने हर तरह की मुश्किलें यही पैदा करता है । प्रेमी के हौसले को तोड़ने के लिए चालें चलता है । उस पर ज़ुल्म करता है । इसलिए उर्दू शायरी का प्रेमी आसमान की तरफ़ इस उम्मीद मे देखता है शायद वो मेहरबान हो जाए । अर्थों के इन संदर्भों को समझने के लिए चुनिंदा शायरी का एक संकलन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में
कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए
ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए
तो आसमान से उतरा ख़ुदा हमारे लिए
जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है
ज़र्रा समझ के यूँ न मिला मुझ को ख़ाक में
ऐ आसमान मैं भी कभी आफ़्ताब था
रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया
हम किसी को गवाह क्या करते
इस खुले आसमान के आगे
आसमान पर जा पहुँचूँ
अल्लाह तेरा नाम लिखूँ
ज़मीन की कोख ही ज़ख़्मी नहीं अंधेरों से
है आसमाँ के भी सीने पे आफ़्ताब का ज़ख़्म
वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में
फ़रिश्ते लोरियाँ गाते हैं उस के कानों में
आसमाँ एक सुलगता हुआ सहरा है जहाँ
ढूँढता फिरता है ख़ुद अपना ही साया सूरज
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
जो आसमानी थे आसमानों में रह गए हैं
गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का
अगर है इंसान का मुक़द्दर ख़ुद अपनी मिट्टी का रिज़्क़ होना
तो फिर ज़मीं पर ये आसमाँ का वजूद किस क़हर के लिए है
डरता हूँ आसमान से बिजली न गिर पड़े
सय्याद की निगाह सू-ए-आशियाँ नहीं
बदले हुए से लगते हैं अब मौसमों के रंग
पड़ता है आसमान का साया ज़मीन पर
रुत बदली तो ज़मीं के चेहरे का ग़ाज़ा भी बदला
रंग मगर ख़ुद आसमान ने बदले कैसे कैसे
हज़ार रास्ते बदले हज़ार स्वाँग रचे
मगर है रक़्स में सर पर इक आसमान वही
तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को
सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए
उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब
नाज़िल हुई न कोई बला आसमान से