1952 | मुंबई, भारत
समाजिक सच्चाइयों को बेनक़ाब करने वाले लोकप्रिय शायर
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जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है
शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है
किस ने पाया सुकून दुनिया में
ज़िंदगानी का सामना कर के
किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता
मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं होता
वजूद
2011
कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिएँ कुछ को लेकिन आसमानों के ख़ज़ाने चाहिएँ
दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं
मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं ग़ाएब हुए हैं जब से तिरी दास्ताँ से हम
बहाना कोई तो ऐ ज़िंदगी दे कि जीने के लिए मजबूर हो जाऊँ
किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं होता
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