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शेर
क्यूँ तू रोता है दिला आने दे रोज़-ए-वस्ल को
इस क़दर छेड़ूँगा उन को वो भी रो कर जाएँगे
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
मेरे लहजे में जो ठहराव नहीं आया 'रोज़'
क्या मिरी तल्ख़ी-ए-हिजरत को नहीं जानते हो
रिज़वाना सईद रोज़
ग़ज़ल
हिज्र में जीने से बेहतर है हलाक-ए-रोज़-ए-वस्ल
ये तरह क्या ख़ूब रास आई है परवाने के तईं
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
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ग़ज़ल
क़स्द करता हूँ हम-आग़ोशी का लेकिन रोज़-ए-वस्ल
जी निकल जाता है उस नाज़ुक बदन को देख कर
हस्सामुद्दीन हैदर नामी
नज़्म
लब पर नाम किसी का भी हो
फ़र्दा महज़ फ़ुसूँ का पर्दा, हम तो आज के बंदे हैं
हिज्र ओ वस्ल, वफ़ा और धोका सब कुछ आज पे रक्खा है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
दिल ताब ही लाया न टुक ता याद रहता हम-नशीं
अब 'ऐश रोज़-ए-वस्ल का है जी में भूला ख़्वाब सा
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
दिल ताब ही लाया न टुक ता याद रहता हम-नशीं
अब ऐश रोज़-ए-वस्ल का है जी में भूला ख़्वाब सा