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नज़्म
परछाइयाँ
चाहा तो मगर अपना न सकीं
हम तो दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िल-ए-तस्कीं पा न सकें
साहिर लुधियानवी
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (1)
वो हम से ख़ुद अपने अमल से
ख़ुदा-वंद बन कर ख़ुदाओं के मानिंद है रू-ए-गरदाँ!
नून मीम राशिद
शेर
पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
रोना ख़ुद अपने हाल पे ये ज़ार ज़ार क्या