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शेर
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
जो करते आए हैं इंसाँ न करते हम तो क्या करते
तिलोकचंद महरूम
नज़्म
सिगरेट और पान का मुकालिमा
सिगरेट ने ये इक पान के बीड़े से कहा
तू हमेशा से परी-रूयों के झुरमुट में रहा
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
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ग़ज़ल
मुझे शबनम बना रक्खा है इन ख़ुर्शीद-रूयों ने
रुलाते हैं निहाँ हो कर मिटाते हैं अयाँ हो कर
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
तितलियाँ देखी हैं बैठी ख़ुश्क फूलों पर कभी
हाजतें अपनी करो तुम ख़ूब-रूओं से बयाँ