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ग़ज़ल
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
उलझ कर जैसे रह जाए कोई ख़्वाब-ए-परेशाँ में
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
रौशनी के साज़-ओ-सामाँ ढूँढता फिरता था मैं
उन दिनों इक चाँद की ता'मीर में उलझा था मैं
कुलदीप कुमार
ग़ज़ल
ज़ियादा साज़-ओ-सामाँ कुछ नहीं ऐ बाग़बाँ मेरा
बना है चार तिनकों से चमन में आशियाँ मेरा
शहीर मछलीशहरी
ग़ज़ल
जुनून-ए-बे-ख़ुदी के साज़-ओ-सामाँ देखने वाले
बड़ी हैरत में हैं मेरा गरेबाँ देखने वाले
नख़्शब जार्चवि
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ग़ज़ल
ये दौर-ए-इंतिहा है इस में फ़िक्र-ए-साज़-ओ-सामाँ क्या
रहे हैं इब्तिदा से बे-नियाज़-ए-साज़-ओ-सामाँ हम
शाहिद सिद्दीक़ी
नज़्म
आवारा
बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ
उस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ