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नज़्म
नग़्मा-ए-देहली
मीनार वो मीनारा-ए-अज़मत जिसे कहिए
मस्जिद वो कि सज्दा-गह-ए-फ़ितरत जिसे कहिए
रिफ़अत सरोश
ग़ज़ल
सज्दा-गाह-ए-अहल-ए-दिल बा'द-ए-फ़ना हो जाइए
सफ़्हा-ए-हस्ती पे इक नक़्श-ए-वफ़ा हो जाइए
हिरमाँ ख़ैराबादी
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नज़्म
ख़दशा
ये तेरे लब ये दयार-ए-यमन के सुर्ख़ अक़ीक़
ये आईने सी जबीं सज्दा-गाह-ए-लैल-ओ-निहार
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
बादा-नोशी में अगर हुस्न-ए-अक़ीदत है शरीक
बज़्म-ए-साक़ी सज्दा-गाह-ए-दो-जहाँ हो जाएगी
मसूद मैकश मुरादाबादी
ग़ज़ल
बनाया सजदा-गह-ए-इंस-ओ-जिन्न दिला ने मिरे
'जमीला' संग-ए-दर-ए-बू-तुराब कर के मुझे