इतना तो जानते हैं कि बंदे ख़ुदा के हैं
इतना तो जानते हैं कि बंदे ख़ुदा के हैं
आगे हवास गुम ख़िरद-ए-ना-रसा के हैं
ममनून-ए-बर्ग-ए-गुल हैं न शर्मिंदा-ए-सबा
हम बुलबुल और ही चमन-ए-दिल-कुशा के हैं
क्या कोहकन की कोह-कनी क्या जुनून-ए-क़ैस
वादी-ए-इश्क़ में ये मक़ाम इब्तिदा के हैं
बुनयान-ए-उम्र सुस्त है और मुनइ'मान-ए-दहर
मग़रूर अपने को शक-ए-आली बिना के हैं
अपने वजूद का अभी उक़्दा खुला नहीं
मसरूफ़ हिल्ल-ओ-अक़्द मैं अर्ज़-ओ-समा के हैं
शैख़ और बरहमन में अगर लाग है तो हो
दोनों शिकार-ए-ग़म्ज़ा उसी दिल-रुबा के हैं
जिन को इनायत-ए-अज़ली से है चश्म-दाश्त
वो मो'तक़िद दुआ के न क़ाएल दवा के हैं
लाया नहीं हुनूज़ नवेद-ए-विसाल-ए-दोस्त
हम शिकवा-संज सुस्ती-ए-पैक-ए-सबा के हैं
समझो अगर तो हैं वही सब से हरीस-तर
तालिब ख़ुदा से जो दिल-ए-बे-मुद्दआ के हैं
उन बद-दिलों ने इश्क़ को बद-नाम कर दिया
जो मुर्तकिब शिकायत-ए-जौर-ओ-जफ़ा के हैं
हिम्मत हुमा-ए-औज-ए-सआ'दत है मर्द को
उल्लू हैं वो जो शेफ़्ता ज़िल्ल-ए-हुमा के हैं
है अश्क-ओ-आह रास हमारे मिज़ाज को
या'नी पले हुए इसी आब-ओ-हवा के हैं
जो बाँधते हैं तुर्रा-ए-तर्रार का ख़याल
नादाँ उमीद-वार नुज़ूल-ए-बला के हैं
खटका भी कुछ हुआ नहीं और दिल उड़ा लिया
ये सारे हथकंडे तिरी ज़ुल्फ़-ए-दोता के हैं
सैद-ए-करिश्मा इस लिए होते नहीं कि हम
पहले से ज़ख़्म-ख़ुर्दा फ़रेब-ए-वफ़ा के हैं
मारा भी और मार के ज़िंदा भी कर दिया
ये शो'बदे तो शोख़ी-ए-नाज़-ओ-अदा के हैं
ख़ल्वत में भी रवा नहीं गुस्ताख़ी-ए-निगाह
पर्दे पड़े हुए अभी शर्म-ओ-हया के हैं
यूँ कह रही है नर्गिस-ए-बीमार की अदा
नुस्ख़े तो मुझ को याद हज़ारों शिफ़ा के हैं
अब तक है सज्दा-गाह-ए-अज़ीज़ान-ए-रोज़गार
जिस ख़ाक पर निशान तिरे कफ़्श-ए-पा के हैं
अंदेशा है कि दे न इधर की उधर लगा
मुझ को तो ना-पसंद वतीरे सबा के हैं
सैर-ए-वरूद-ए-क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार देख
बरपा ख़ियाम औज-ए-हवा में घटा के हैं
जाता है ख़ाक-ए-पाक-ए-दकन को ये रेख़्ता
वाँ क़द्र-दान इस गुहर-ए-बे-बहा के हैं
अहबाब का करम है अगर नुक्ता-चीं न हों
वर्ना हम आप मो'तरिफ़ अपनी ख़ता के हैं
स्रोत:
Kulliyat-w-Hayat-e-Ismail Ba-Tasveer (Pg. ebook-483 oage-295)
- लेखक: मोहम्मद असलम सैफ़ी
-
- संस्करण: 1939
- प्रकाशक: दयाल प्रिंटिंग प्रेस, दिल्ली
- प्रकाशन वर्ष: 1939
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