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ग़ज़ल
गँवा चुका है तू साक़ी-ए-हौज़-ए-कौसर को
कि तेरे ज़र्फ़ में अब तक शराब-ए-नाब नहीं
नक़्क़ाश अली बलूच
ग़ज़ल
यही है ज़ोहद का आलम तो फिर ऐ हज़रत-ए-नासेह
शराब-ए-हौज़-ए-कौसर का छलकता जाम क्या होगा
कशफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
मदहत-ए-साक़ी-ए-कौसर तुझ को लिखनी है 'क़लक़'
पहले आब-ए-हौज़-ए-कौसर से नहाना चाहिए
असद अली ख़ान क़लक़
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नज़्म
कातिक का चाँद
ये बड़ा चाँद चमकता हुआ चेहरा खोले
बैठा रहता है सर-ए-बाम-ए-शबिस्ताँ शब को
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है