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ग़ज़ल
हलाक-ए-नाला-ए-शबनम ज़रा नज़र तो उठा
नुमूद करते हैं 'आलम में गुल-रुख़ाँ क्या क्या
अमजद इस्लाम अमजद
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नज़्म
तस्वीर-ए-दर्द
दिखा वो हुस्न-ए-आलम-सोज़ अपनी चश्म-ए-पुर-नम को
जो तड़पाता है परवाने को रुलवाता है शबनम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बहार बन के चली आ कि जा रही है बहार
बरस रही है गुल-ए-मुद्दआ' पे शबनम-ए-कैफ़
यही नशात के दिन हैं यही है आलम-ए-कैफ़
सय्यद आबिद अली आबिद
नज़्म
रूदाद-ए-ख़िज़ाँ
चाहत से किसी की सीखा था ग़म सहना और आँसू पीना
लेकिन अब तो हर अश्क-ए-अलम आँखों से टपक ही जाता है
राबिया सुलताना नाशाद
ग़ज़ल
ख़त-ए-मुश्कीं को रैहाँ जानता हूँ बाग़-ए-आलम में
तिरी चश्म-ए-सियह को नर्गिस-ए-शहला समझता हूँ
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
नज़्म
क़तरा-ए-शबनम
सारी रौनक़ गुलशन-ए-आलम की तेरे दम से है
ताज़गी-ए-सब्ज़ा-ओ-गुल क़तरा-ए-शबनम से है