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ग़ज़ल
मोहम्मद आबिद अली आबिद
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शेर
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
आँखें बाज़ार में यूँ उस को न मटकाना था
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वो सितम-पेशा कहाँ शर्म-ओ-हया रखते हैं
हम ग़रीबों पे हर इक ज़ुल्म रवा रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
नज़्म
तामीरी तख़रीब
पैकर-ए-शर्म-ओ-हया शर्म-ओ-हया से दूर है
सीना-ए-अख़्लाक़ में रिसता हुआ नासूर है
नख़्शब जार्चवि
ग़ज़ल
इज़्तिराब-ए-ख़ुद-नुमाई-ओ-हया में फ़र्क़ है
हम समझते हैं जो उन की हर अदा में फ़र्क़ है
उरूज ज़ैदी बदायूनी
ग़ज़ल
तुझे कुछ 'शर्म' रखनी है अब इस अज़्म-ए-मुसम्मम की
सफ़र थोड़ा सा भी ऐ कारवाँ बाक़ी न रह जाए
शर्म लखनवी
ग़ज़ल
तम्कीं से न देखे जो कभी आइना झुक कर
वो मुर्तक़िब-ए-शर्म-ओ-हया हो नहीं सकता