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ग़ज़ल
शर्म से तुम को सिमटना है तो सिम्टो हुस्न से
दिल में बन जाओ सुवैदा पुतलियों में तिल बनो
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ भी अब हुई जाती है तंग
और भी कुछ ऐ जुनूँ वालो अभी सिम्टो ज़रा
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
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नज़्म
बंजारा-नामा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
कुछ काम न आवेगा तेरे ये लाल-ओ-जमुर्रद सीम-ओ-ज़र
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी
बाँहें थीं मगर विसाल-ए-सामाँ!
सिमटी हुई उस के बाज़ुओं में
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब
पहले थी इक अजब फ़ज़ा और जो पुर-फ़ज़ा भी थी