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शेर
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
तौबा कर लूँ तो कभी मय-कदा आबाद न हो
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हम जो मस्जिद से दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे
बढ़ के ये बात ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
रिंदों में यूँ ही बख़्शिश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहे
हो लाख क़हत फिर भी ये दरिया रवाँ रहे
अब्दुस्सलाम नदवी
ग़ज़ल
जिगर बरेलवी
ग़ज़ल
ठहर ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हम भी साथ चलते हैं
उठा लेने दे फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ पहले
अर्श सहबाई
ग़ज़ल
याँ बादा-ए-अहमर के छलकते हैं जो साग़र
ऐ पीर-ए-मुग़ाँ देख कि है सारी दुकाँ सुर्ख़