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ग़ज़ल
हैं तलबगार मोहब्बत के मियाँ जो अश्ख़ास
वो भला कब तलब-ए-दाम-ओ-दिरम करते हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
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कुल्लियात
यक मिज़ा ऐ दम-ए-आख़िर मुझे फ़ुर्सत दीजे
चश्म-ए-बीमार के देख आने की रुख़्सत दीजे
मीर तक़ी मीर
शेर
मबादा फिर असीर-ए-दाम-ए-अक़्ल-ओ-होश हो जाऊँ
जुनूँ का इस तरह अच्छा नहीं हद से गुज़र जाना
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
वाबस्ता-ए-दाम-ए-होश-ओ-ख़िरद हंगामा-ए-वहशत करना है
ता'मीर के रंगीं फूलों से तख़रीब का दामन भरना है
क़ाज़ी सय्यद मुश्ताक़ नक़्वी
ग़ज़ल
मौसम-ए-गुल साथ ले कर बर्क़ ओ दाम आ ही गया
यानी अब ख़तरे में गुलशन का निज़ाम आ ही गया
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
मक़्दूर नहीं हम को फ़र्त-ए-दम-ए-जौलाँ पर
कर देंगे निछावर जाँ हम 'इश्वा-ए-सामाँ पर
डॉ. हबीबुर्रहमान
ग़ज़ल
दाम-ए-ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ से छुड़ा लिया
क्या बाल बाल मुझ को ख़ुदा ने बचा लिया