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ग़ज़ल
ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ तक़द्दुस-मआब हैं हम लोग
हमारा ज़िक्र भी कीजे तो बा-वज़ू कीजे
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
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नज़्म
तक़द्दुस-ए-मआब
'असरार' मुब्तला हुए इक दिन अज़ाब में
यानी गिरफ़्त-ए-ज़ाहिद-ए-इज़्ज़त-मआब में
असरार जामई
ग़ज़ल
हिन्द की ख़ाक का हर ज़र्रा है तक़्दीस-मआ'ब
ज़र्रे ज़र्रे के तले अहल-ए-सफ़ा रहते हैं
कृष्ण गोपाल मग़मूम
ग़ज़ल
शब-ए-महताब में वो रुख़ से उलटते जो नक़ाब
गिर्द फिर फिर के तसद्दुक़ मह-ए-ताबाँ होता
सफ़दर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
उस शाम-ए-जुदाई के तसद्दुक़ मह-ओ-अंजुम
जिस शाम-ए-जुदाई को ख़ुद आवाज़ सहर दे