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ग़ज़ल
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
'अहद-ए-नौ में कुछ नहीं मिलता है क़ीमत के बग़ैर
अब मसीहा ने रविश अपनी पुरानी छोड़ दी
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
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ग़ज़ल
हाए ये तरफ़ा मआल-ए-आरज़ू-ए-सुब्ह-ए-नौ
जिस तरफ़ नज़रें उठाता हूँ फ़ज़ा मस्मूम है
उरूज ज़ैदी बदायूनी
ग़ज़ल
फैली हुई है मस्ती-ए-दाम-ए-बहार-ए-नौ
हर इक रविश है कैफ़ का सामाँ लिए हुए