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नज़्म
फ़ितरत-ए-दुश्मन
यक़ीनन इंक़लाब-ए-हिन्द होगा ऐ 'सुख़न' होगा
हमें ज़ेबा है अपने घर में झंडा सुर्ख़ लहराना
टीका राम सुख़न
नज़्म
ईश्वर प्रार्थना
फिर यक़ीं आए 'सुख़न' ये इंक़िलाब है ज़िंदाबाद
हिंदू-ओ-मुस्लिम का हाँ अब रंग लाया है जिहाद
टीका राम सुख़न
ग़ज़ल
वो जो हैं लज़्ज़त-ए-तफ़्हीम-ए-सुख़न से वाक़िफ़
शे'र सुनते हैं वही लोग मुकर्रर मुझ से
अब्दुल वहाब सुख़न
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ग़ज़ल
मिरी सरिश्त-ए-'सुख़न' में हैं कुछ नए उस्लूब
नई ग़ज़ल ने मुझे भी ख़ुश-आमदीद कहा
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
उफ़ुक़ का चेहरा 'सुख़न' इस कदर उदास है क्यूँ
शफ़क़ के रंग में ये सुर्ख़ी-ए-लहू कैसी
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
किसी के नक़्श-ए-क़दम की थी जुस्तुजू वर्ना
मैं इस तरह तो 'सुख़न' दर-ब-दर नहीं होता
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
हुसूल-ए-अम्न-ओ-मुहब्बत की चाशनी के लिए
मिज़ाज-ए-तल्ख़ी-ए-दौराँ 'सुख़न' गवारा कर
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
अभी है दूर हर इक महफ़िल-ए-तरब से 'सुख़न'
दिल-ओ-नज़र में अभी इज़्तिराब इतने हैं