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नज़्म
गुफ़्तुगू (हिन्द पाक दोस्ती के नाम)
तीखी नज़रें हों तुर्श अबरू-ए-ख़मदार रहें
बन पड़े जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहें
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
दुर-हा-ए-आब-दार ओ शरर-हा-ए-दिल-नशीं
शब-हा-ए-तल्ख़-ओ-तुर्श ओ सहर-हा-ए-शक्करीं
जोश मलीहाबादी
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शेर
जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की
तुर्श हो बोला कि क्यूँ बे तू भी इस लाएक़ हुआ
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
न तुर्श-रू हो न खट्टे करो हमारे दाँत
मज़ा है हँस के लब-ए-शक्करीं का बोसा दो
मक़सूद अहमद नुत्क़ काकोरवी
ग़ज़ल
मिरी रूदाद-ए-ग़म पर तुर्श लहजे में कहा उस ने
ये रोना रोज़-ओ-शब शाम-ओ-सहर अच्छा नहीं लगता
वक़ार मानवी
शेर
क्या दिया बोसा लब-ए-शीरीं का हो कर तुर्श-रू
मुँह हुआ मीठा तो क्या दिल अपना खट्टा हो गया
मीर कल्लू अर्श
नज़्म
मुर्दा-ख़ाना
जो बात की तो उन्हें तेज़-ओ-तुर्श ज़हर मिला
जो चुप हुए तो उन्हें सूलियों पे टाँग दिया
साक़ी फ़ारुक़ी
हास्य
इधर मैं कसरत-ए-औलाद से लाग़र उधर उन की
ज़बाँ पर तुर्श-ए-नारंगी जो पहले थी सौ अब भी है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
तल्ख़-ओ-तुर्श
क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
ज़हर ही मुझ को मिला ज़हर पिया है मैं ने