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ग़ज़ल
मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें
फ़रिश्तों को बना देती हैं दीवाने तिरी आँखें
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
काैसर परवीन काैसर
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ग़ज़ल
मैं जब हूँ आज सरशार-ए-मय-ए-जाम-ए-तन-आसानी
ये मुश्त-ए-ख़ाक ऐ 'ज़मज़म' हम-आहंग-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो
सूफ़ी ज़मज़म बिजनोरी
ग़ज़ल
ये भी था चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ का सदक़ा 'ज़मज़म'
बर्क़ क्या ख़ाक जलाती मिरे काशाने को
सूफ़ी ज़मज़म बिजनोरी
ग़ज़ल
सच पूछिए 'ज़मज़म' तो अब इस दौर-ए-हवस में
जीने ही का कुछ लुत्फ़ न मरने का मज़ा है
सूफ़ी ज़मज़म बिजनोरी
ग़ज़ल
अहल-ए-दिल अहल-ए-नज़र से कोई पूछे 'ज़मज़म'
इस मोहब्बत को जो सीने में निहाँ होती है
सूफ़ी अय्यूब ज़मज़म
ग़ज़ल
'ज़मज़म' ये इंक़लाब निराला है क्या कहें
आज़ादी-ए-वतन की ख़ुशी ग़म है इन दिनों
सूफ़ी अय्यूब ज़मज़म
ग़ज़ल
उधर की नर्गिस-ए-मख़मूर ने तीर-अफ़गनी 'ज़मज़म'
इधर उट्ठी सदा-ए-आफ़रीं उश्शाक़ के दिल से
सूफ़ी ज़मज़म बिजनोरी
ग़ज़ल
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा सलामत है तो 'ज़मज़म' इक दिन
जल्वा-ए-दोस्त लब-ए-बाम भी आ जाएगा