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ग़ज़ल
ज़र्रा-ए-वादी-ए-उल्फ़त पे मुनासिब है निगाह
फ़लक-ए-हुस्न पे ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ हो कर
ग़ुलाम भीक नैरंग
ग़ज़ल
किस के जल्वों ने दिखाई वादी-ए-उल्फ़त मुझे
खींचे है इक भोली-भाली साँवली सूरत मुझे
रऊफ़ यासीन जलाली
नज़्म
सर-ए-वादी-ए-सीना
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना
फिर रंग पे है शोला-ए-रुख़्सार-ए-हक़ीक़त
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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शेर
सँभल कर पाँव रखना वादी-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में
यहाँ जो सैर को आता है बच कर कम निकलता है
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
घर अपना वादी-ए-बर्क़-ओ-शरर में रक्खा जाए
तअ'ल्लुक़ात का सौदा न सर में रक्खा जाए