aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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raaste me.n kaise hobaat taKHliye kii hai
कभी कभी ज़्यादा दबाने पर ये गोलियां पिचक जातीं और उनके मुँह से लेसदार लुआब निकल आता। उसको देख कर उसका चेहरा कान की लवों तक सुर्ख़ हो जाता। वो समझता कि उससे कोई गुनाह सरज़द हो गया है। गुनाह और सवाब के मुतअल्लिक़ मोमिन का इल्म बहुत महदूद था।...
अंगोछे वाले बुज़ुर्ग ने शय-ए-मज़्कूर से पहले अपने नरी के जूते की गर्द झाड़ी, फिर पेशानी से पसीना पोंछते हुए मरहूम के इरफ़ान-ए-मर्ग की शहादत दी कि जन्नत-मकानी ने विसाल से ठीक चालीस दिन पहले मुझसे फ़रमाया था कि इंसान फ़ानी है! इंसान के मुतअ'ल्लिक़ ये ताज़ा ख़बर सुनकर मिर्ज़ा...
(2) कोई ऐक्ट्रस तुम्हें भय्या या भाई साहब कहे तो फ़ौरन उसके कान में कहो, आप की अंगिया का साइज़ क्या है। (3) किसी ऐक्ट्रस पर अगर तुम्हारी तबीयत आगई है तो तमहीदें बांधने में वक़्त ज़ाए न करो। उससे तख़्लिए में मिलो और कहो कि मैं भी मुँह में...
वो कुछ न समझती और हंस देती। हामिद उसे अपने सीने के साथ लगा लेता। लता की बांहें बड़ी सुडौल और गोरी गोरी थीं, उन पर चोली की छोटी छोटी आस्तीनें फंसी हुई थीं। हामिद ने उनको भी कई बार चूमा, लता का हर उज़ू हामिद को प्यारा लगता था।...
मैं भी वहीं था। लेडी वालंटियर्ज़ एक दूसरे तंबू में निगार को दुल्हन बना रही थीं। ग़ुलाम अली ने कोई ख़ास एहतिमाम नहीं किया था। सारा दिन वो शहर के कांग्रेसी बनियों से रज़ाकारों के खाने पीने की ज़रूरियात के मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करता रहा था। इससे फ़ारिग़ हो कर उसने...
डाक्टर शाकिर ने मेरे दोस्त की इस हरकत को बुरा समझा और तख़लिए में मुझसे बड़े तेज़ लहजे में कहा, “मालूम होता है, तुम्हारे दोस्त का दिमाग़ ठिकाने नहीं।” मैंने उसकी तरफ़ से माज़रत तलब की और मुआमला रफ़ा -दफ़ा हो गया, मैं वाक़ई बेहद शर्मिंदा था कि डाक्टर शाकिर...
यही वजह है कि ज़ीनत ने जमाल को कई मौक़ा दिए कि वो उससे हमकलाम हो सके। वो उससे जब पहली बार मिला तो काँप रहा था। काँपते काँपते और डरते डरते उसने एक नॉवेल ‘बग़ैर उनवान के’ अपनी जेब से निकाला और ज़ीनत को पेश किया, “इसे पढ़िए मैं......
बारे रहने का ठिकाना हुआ तो सैर सपाटे की सूझी। प्रोफ़ेसर को क्वेटा बहैसियत मजमूई पसंद आया। ये 'बहैसियत मजमूई' की पख़ हमारी नहीं, उन्हीं की लगाई हुई है। दिल में वो इस शहर-ए-निगाराँ इस सैर गाह मग़रूरां की एक एक अदा, बल्कि एक एक ईंट पर निसार थे लेकिन...
अब इत्तफ़ाक़न अगर उससे मुलाक़ात होती तो मेरा बेइख़्तयार जी चाहता कि उससे एक बार फिर वो सवालात करूं जिनके जवाब से मेरी ज़ेहनी उलझन दूर हो और डाक्टर सईद के अ’क़ब में जो कुछ भी था, उसकी सही तस्वीर मेरी आँखों के सामने आ जाये। मगर ऐसा कोई तख़लिए...
आँखों में से आँसू बहते हैं। कई कई दिन वाक़ई खाना नहीं खाया जाता, लेकिन इसके साथ ही साथ हाथों पर मेहंदी लगवाई जाती है, ढोलक बजाने वाली सहेलियों के साथ बैठा जाता है। गप्पें उड़ाई जाती हैं और तख़लिए में अपनी सबसे अज़ीज़ सहेली के साथ कंपकंपी पैदा करने...
मेरी तरफ़ घूर कर देखने के बाद उसने उधर दीवार की तीनों खिड़कियां बंद कीं। हर खिड़की की चटख़नी चढ़ा कर उसने मेरी तरफ़ इस अंदाज़ से देखा गोया उसे इस बात का डर है कि मैं उठ भागूंगी। ईमान की कहूं उस वक़्त मेरा यही जी चाहता था कि...
उसने इससे और ज़्यादा कुछ न कहा और तस्वीर ज़मीन ही पर छोड़ कर तेज़ क़दमों से अपने एक दोस्त डाक्टर जमील के पास गया और सारी बात बता दी। जमील ने उसको हस्पताल में दाख़िल करा दिया जहां उसके झूट मूट के मर्ज़ का ईलाज होता रहा। आख़िर डाक्टर...
"जी फ़रमाईए।" ख़ालिद ने कहा। "मैंने गुज़िश्ता बीस साल तख़लिए में बैठ कर अल्लाह की इबादत की है। बीस साल।" उसकी आवाज़ जज़्बात की शिद्दत से काँपी। वो रुक गया। कमरे में गहरी बोझल ख़ामोशी छा गई। सदियां गुज़र गईं... लेकिन... उसकी आवाज़ फिर गूँजी।...
एक लड़के ने इस सवाल का जवाब बिल्कुल मुख़्तलिफ़ तौर पर दिया। ''अजी साहिब छोड़िए। लड़कियां इस छेड़-छाड़ को बहुत पसंद करती हैं। औरत की जवानी और मर्द की जवानी में लंबा चौड़ा फ़र्क़ ही क्या है। बस यही ना कि वो शलवार क़मीस या साड़ी पहन कर जवान होती...
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