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कुछ नहीं है तो अदावत ही सही

सआदत हसन मंटो

कुछ नहीं है तो अदावत ही सही

सआदत हसन मंटो

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    क़ता कीजिए ना ताल्लुक़ हमसे... कुछ नहीं है तो अदावत ही सही... क़त-ए-तअल्लुक़ भी है और नहीं भी है। अदावत भी है और नहीं भी है। अजीब-ओ-ग़रीब मज़मून है। कुछ समझ में नहीं आता कि मर्द और औरत का बाहमी रिश्ता क्या है। औरत की तरफ़ मर्द का मैलान समझ में जाता है लेकिन मर्द की तरफ़ औरत का मैलान जो है भी और नहीं भी है समझ से कुछ ऊंचा ही रहता है, यानी औरत मर्द से नफ़रत भी करती है और अंजाम-कार उससे मुहब्बत भी करती है। उसकी बद-उनवानियों की मज़म्मत करती है, मगर इसके बावजूद उन बद-उनवानियों का शिकार हो जाती है।

    शादी ही को लीजिए जो कि बहुत आम चीज़ है। चाहिए तो ये कि लड़की अपनी शादी पर ख़ुश हो, लेकिन होने वाली दुल्हनों को किस ने गठड़ी बनते नहीं देखा। रोनी आवाज़ में उनके मुंह से ऐसी बातें किस ने नहीं सुनीं। मेरी जूती को क्या ग़रज़ पड़ी थी। जो मैं चक़ में से उनको झांक कर देखती... मैं तो उन्हें हाथ तक ना लगाने दूं... मुफ़्त की हाथ लग गई हूं जभी तो अपने दोस्तों में मेरी यूं हतक की गई है... आग लगे मेरी जान को... नहीं भई मैं तो उम्र भर कुँवारी रहूंगी... अम्मी जान ने तो अपने सर की बला टाली है... जाने कौन हैं कौन नहीं हैं, घर ले जाते ही मुझे क़त्ल कर दें... इतना पढ़ाया लिखाया था क्या इसी दिन के लिए कि मुझे एक नामहरम आदमी के हवाले कर दिया जाये... मैं ज़हर खा लूंगी... लड़कियां पराया धन होता है, बस ये कह कर टाल दिया जाता है... चार रोज़ से मेरे मुँह में एक खील तक नहीं गई। किसी को तरस नहीं आता... नहीं मैं यूं नहीं बैठूँगी... मुझसे ये क्यों कहा जा रहा है कि नहाओ, सजो, बनो... ये सजा, बना कर मुझे किसके हवाले किया जा रहा है... मेरी भित्ति खाए, मुझे हाय हाय कर के पीटिए अगर मेरी शादी कीजिए...”

    आँखों में से आँसू बहते हैं। कई कई दिन वाक़ई खाना नहीं खाया जाता, लेकिन इसके साथ ही साथ हाथों पर मेहंदी लगवाई जाती है, ढोलक बजाने वाली सहेलियों के साथ बैठा जाता है। गप्पें उड़ाई जाती हैं और तख़लिए में अपनी सबसे अज़ीज़ सहेली के साथ कंपकंपी पैदा करने वाली बातें की जाती हैं। आज़मूदा नुस्खे़ नोट किए जाते हैं। आने वाले हादिसात की तफ़्सीलात इधर उधर से इकट्ठी की जाती हैं और... और... क्या कुछ नहीं किया जाता।

    मेहंदी लगे हाथ, मुक़्क़ैशी बाल... लस-लस करते भारी जोड़े, चमकीले ज़ेवर, चेहरे की उड़ी उड़ी रंगत, रेशमी घूँघट, दिल में धड़कनें... शहनाइयाँ... बाजे गाजे। धूम धड़ाके... उसके बाद हजलह-ए-उरूसी... ख़ामोशियों के क़ुफ़ुल जो कभी खुलीं ही नहीं। उधर यकसर इनकार, इधर कभी इल्तिजाएँ, मिन्नतें, ख़ुशामदें और कभी धमकियां। ''लो अब ख़ुदा के लिए मान भी जाओ... देखो हम तुमसे कभी ना बोलेंगे... कुछ मुँह से तो बोलो... कसम ले-ले जो तुम्हें फिर गुद-गुदाऊं, एक फ़क़्त तुम हाँ कर दो... ख़ुदा की क़सम मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगा... लो मैं एक तरफ़ हट जाता हूं... तुम अब भी नहीं मानतीं। आख़िर ये सिलसिला कब तक जारी रहेगा। भई मैं तो थक गया हूं आख़िर हमें थोड़ी देर आराम भी तो करना है...”

    कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके... ख़ामोशी “तकल्लुम” में तबदील हुई। नहीं आप अपने दोस्तों को ज़रूर सारी बात बता देंगे... मुझे कहीं का ना रखेंगे... आपको ख़ुदा की क़सम जो आपने कुछ कहा... हाय, मैं कैसी बे-हया हूं... आप दिल में क्या कहते होंगे। चटख़ चटख़ बातें कर रही है... ख़ुदा करे मुझे मौत जाए। ज़रूर दरवाज़े के बाहर कोई खड़ा है... अब मैं क्या करूँ... ज़बरदस्ती ना कीजिए... मेरी कलाई टूट जाएगी। आप कितने बेरहम हैं... देखिए मैं हाथ जोड़ती हूं। ख़ुदा के वास्ते मुझे छोड़ दीजिए... मैं मर जाऊँगी... मुझे बख़्श दीजिए। सिर्फ आज के रोज़ बख़्श दीजिए, फिर आप जो कहेंगे मैं मान लूँगी।

    ऐसी बातें कौन मानता है। आख़िर वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है... हर जवान लड़की से जल्द या ब-देर यही सानिहा पेश आता है। मर्दों की बद-उनवानियों के मुताल्लिक़ सारी शिकायतें धरी की धरी रह जाती हैं और एक ही रात में वो तमाम मंज़िलें तै कर ली जाती हैं जिनके मुताल्लिक़ सोचना भी कभी गुनाह समझा जाता था।

    शादी के दूसरे रोज़ ही वो मर्द जिसको बुरा भला कहा जाता था, अज़ीज़ तरीन रफ़ीक़ बन जाता है। ”उन्होंने कहा था कि तुम सीधी मांग निकाला करो... सुबह से कहीं बाहर गए हैं, अभी तक लौटे नहीं। अल्लाह ख़ैर करे... ये स्लीपिंग सूट उन्होंने मुझे दिया है। कहते थे रात को सोते वक़्त दूसरे कपड़ों की बजाय अब इसे ही पहना करो... नहीं भई मैं पान नहीं खाऊँगी। उन्होंने मना किया था... उनको आज तक कभी वक़्त पर चाय नहीं मिली थी। जब मैंने ये सुना तो ख़ुदा की क़सम मेरे दिल को बहुत दुख हुआ... सुबह उठ कर मैंने पहला काम यही किया कि उनके लिए चाय बनवाई...”

    मैं समझता हूं कि मर्द और औरत के दरमियान सिर्फ एक रात हाइल है। अगर ये काली चीज़ हाइल ना होती तो ख़ूबाँ से छेड़-छाड़ कभी पर्दा-ए-ज़हूर पर ना आती। बहुत मुम्किन है कि मर्द छेड़ते वक़्त इस बात को भूल जाता हो मगर औरत जब छेड़ती है या जब किसी औरत को छेड़ा जाता है तो ये रात झट उस की नज़रों के सामने जाती है।

    सारा फ़साद उसी रात का है जिसने इन्सानी ज़िंदगी को कई ख़ूबसूरत रौशनियों से मुतआरिफ़ कराया है। छेड़-छाड़ इन्ही रौशनियों में से एक रौशनी है, जिसे फुलझड़ी कहना बजा होगा। मैं इसके मुताल्लिक़ पिछले मज़मून में नौजवान मर्दों के तास्सुरात बयान कर चुका हूं। इस मज़मून में नौजवान लड़कियों का रद्द-ए-अमल बयान किया जाएगा।

    ये रद्द-ए-अमल मालूम करने के लिए मैंने ज़ैल का सवालिया तैयार किया:

    1. मर्दों की छेड़-छाड़ के मुताल्लिक़ आपका क्या ख़्याल है... आप उसे पसंद करती हैं या ना पसंद?... पसंदीदगी और नापसंदीदगी की वजह बयान कीजिए।

    2. जब आपको छेड़ा जाता है तो आप क्या करती हैं?

    3. आपको क्यों छेड़ा जाता है?

    4. क्या आप मर्दों को नहीं छेड़तीं?

    5. कोई ऐसा वाक़िया बयान कीजिए जो इस छेड़-छाड़ से मुताल्लिक़ हो और जिसका तास्सुर अभी तक आपके हाफ़िज़े पर क़ायम हो?

    ज़ाहिर है कि औरतों और लड़कियों से बराह-ए-रास्त ये सवाल करने और उनका जवाब हासिल करने में मुझे बहुत दिक्कत पेश आई होगी। ख़ुसूसन कुंवारी लड़कियों से तो मैंने डर डर के ये सवाल किए। बहरहाल किसी ना किसी तरह उन दिक्कतों और मुश्किलों के बावजूद ये मज़मून तैयार हो ही गया।

    औरतों और लड़कियों के तास्सुरात और उनका रद्द-ए-अमल बयान करने से पहले मैं ये बता देना ज़रूरी समझता हूं कि एक जगह तमाम लड़कियों और औरतों को बुला कर मैंने ये मालूमात हासिल नहीं की। मुझे तीन बड़े शहरों में रहने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। लाहौर, बंबई और दिल्ली। इन तीन शहरों में मुख़्तलिफ़ औक़ात में, मैं एक एक दो दो औरतों से मिला। उनसे दोस्ताना बातचीत की और अपने मतलब की बातें मालूम कर लीं।

    कल बारह औरतों से मेरा इस किस्म का इंटरव्यू हुआ। जिनमें से दो ब्याही हुई थीं। बाक़ी सब कुंवारी थीं। उनकी उम्र का औसत सोलह साल से ज़्यादा नहीं था।

    नौ लड़कियों ने जिनमें दो ब्याही हुई भी शामिल थीं, पहले सवाल का बिलकुल एक जैसा जवाब दिया। ''मर्दों की छेड़-छाड़ के मुताल्लिक़ हमारा ख़्याल ये है कि ऐसी फ़ुज़ूल और ना-ज़ेबा हरकत कोई और हो ही नहीं सकती। पराई बहू बेटियों को छेड़ना कहां की शराफ़त है। ये सरीहन शोहदापन है। इस किस्म की हरकत सिर्फ वही लोग करते हैं जो अख़लाक़-ए-हमीदा से आरी होते हैं। जिनकी आँखों में शर्म का पानी भी नहीं होता। हम इस छेड़-छाड़ को सिर्फ नापसंद ही नहीं करतीं बल्कि इंतिहाई नफ़रत की निगाह से देखती हैं। इसलिए कि हमारी आज़ादी में ये बेशुमार रुकावटें पैदा करने का मुजिब बनी हुई है। ग़ज़ब ख़ुदा का हम डर के मारे बाहर सैर को भी तो नहीं जा सकतीं। बाग़ में घूमने के लिए जाए तो हमेशा इस बात का खटका रहता है कि कोई मर्द हमारे पीछे पीछे चलना शुरू कर देगा और ऐसी भूकी नज़रों से देखेगा कि सैर का सारा लुत्फ़, सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा। किसी फूल की तरफ़ देखिए तो झाड़ी के अक़ब से कनसुरी आवाज़ आएगी। ''उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों को देख आना था। चले हैं सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की।” सैर-ए-गुल गई भाड़ में और ज़ख़्मी गए चूल्हे में। कहाँ की सैर-ए-गुल, कहाँ की शोख़ी, ये निगोड़े कुछ करने भी दें। ये मोटी छेड़-छाड़ है या गंदी मोरी के छींटे। कोई पिक्चर देखने जाओ तो सबकी गर्दनें हमारी तरफ़ मुड़ जाएँगी। घूरे जा रहे हैं। सब घूरे जा रहे हैं। बात तक करने की इजाज़त नहीं। अंधेरा होता है तो इस बात का धड़का रहता है कि अपनी टांग खुजलाने के बहाने साथ वाले लाला जी हमारी टांग खुजलाना शुरू कर देंगे। पिक्चर ख़त्म होने पर बाहर निकलते वक़्त ये अंदेशा लाहक़ रहेगा कि कोई साहिब कंधा मार कर निकल जाएंगे और अंग्रेज़ी में अफ़सोस का इज़हार कर देंगे... कोठे पर बाल सुखाने के लिए जाओ तो कोई हमसाया अपनी चढ़ी हुई पतंग की डोर ढीली कर के बालों में उलझा देगा। गुस्से में आकर डोर पकड़ लो तो आवाज़ आएगी। ''ले लीजिए जितनी दरकार है।” भुन कर डोर खींचना शुरू की तो उन्होंने चर्ख़ी हाथ में ले ली। खींचते जाए जब तक आप थक ना जाएं।” क्या करें क्या ना करें हम तो बहुत आजिज़ गए हैं... एक दुख हो तो बताएं... शॉपिंग के लिए जाएं तो और मुसीबतें सर पर खड़ी होती हैं। दुकानदार ही आँखें सेंक रहे हैं और अपनी हिर्स पूरी कर रहे हैं। कभी कभी कोई फ़िक़रा भी चुस्त कर देता है। ''कश्मीर के सेब इधर भी देखते जायें... अंडर वीयर्ज के नए नए डिज़ाइन आए हैं। मुलाहिज़ा फ़रमाते जायें ... एक नज़र इधर भी, बिलकुल नया माल है...” अब इन मर्दों से कोई क्या कहे। जी तो अक्सर यही चाहता है कि अपनी छतरी इन मलऊनों के हलक़ में घूंस दें या हैंड बैग मुँह पर दे मारें मगर बेकार के फ़ज़ीहते से डर लगता है इसलिए मजबूरन ख़ामोश रहना पड़ता है... कोई मोटर पास से गुज़रती है तो उस के अंदर बैठे हुए तमाम साहिबान घूरना शुरू कर देते हैं। कोई उनसे पूछे कि हज़रत ये आपको क्या ख़ब्त समाया। आपकी मोटर जा रही है, हम भी जा रहे हैं, इस नज़र-बाज़ी का फ़ायदा?... मोटर वालों को छोड़िए, ये कमबख़्त डलिया वाले मज़दूर (जिन्हें दिल्ली में झिल्ली वाले और बंबई में पाटिया वाले कहते हैं) भी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। ''मेम साहब, लाए ये पार्सल मैं उठा लूं... ये मर्तबान मुझे दे दीजिए, मैं उठा लेता हूँ” उनसे कहा जाता है। ''नहीं भाई, मैं इतनी छोटी चीज़ के लिए मज़दूर नहीं चाहती।” जवाब मिलता है। ''मेम साहिबा मैं आपसे पैसे थोड़े ही मांगता हूं।” अब बताइए इन उल्लू के पट्ठों को क्या जवाब दिया जाये। सौ-सौ आफ़तों में हर वक़्त जान पड़ी रहती है... कोई ठिकाना है इस अज़ाब का। ख़ुदा करे ना रहें ऐसे लोग इस दुनिया के तख़्ते पर। नाक में दम कर रखा है नाबकारों ने... छेड़-छाड़ को नापसंद करने की वजह इस के सिवा और क्या हो सकती है कि ये एक निहायत ही लगी और बेहूदा हरकत है कि जिसका सर है ना पैर। हमें आख़िर क्या समझ लिया गया है।

    इन नौ लड़कीयों में से एक ने कहा। “मुझे इस छेड़-छाड़ से उतनी ही नफ़रत है जितनी चूहों से बल्कि उससे भी कहीं ज़्यादा...

    एक और ने कहा। ''मैं इसलिए ये छेड़-छाड़ नापसंद करती हूँ कि औरत उस का जवाब थप्पड़ मारने या गाली देने के सिवा किसी और तरीक़े से दे ही नहीं सकती। ज़ाहिर है कि ये दोनों चीज़ें हमसे नहीं हो सकतीं। इसी वास्ते हम इस से नफ़रत करते हैं।”

    राह चलते छेड़ा जाये तो और भी मुसीबत है। अब क्या बीच बाज़ार तू तू मैं मैं शुरू कर दी जाये। असल में औरत शुरू से दबी हुई है। इसलिए बेचारी कुछ भी नहीं कर सकती वर्ना ऐसे बद-नीयत मर्दों का ईलाज हो सकता है।

    बाक़ी तीन लड़कियों में से दो ने इसी सवाल के जवाब में कहा। हमें ये छेड़-छाड़ नापसंद नहीं मगर वो छेड़-छाड़ यक़ीनन नापसंद है जो बिलकुल तहज़ीब से गिरी हुई हो। यानी जिसमें इंतिहा दर्जे का भौंडापन हो। आँखें मारना, कंधे रगड़ना, सलाम करना, दूर से इशारा-बाज़ी करना, फ़ोह्श मज़ाक़ करना, ये सब हमें नापसंद है। हमारी समझ में नहीं आता कि एक आँख मींच लेने से किया होता है। छेड़ने का ये तरीक़ा बहुत ही बाज़ारी और आमियाना है। इसका मतलब इसके सिवा और क्या हो सकता है। ''क्यों, तुम्हारी क्या सलाह है?' ये मज़ाक़ नहीं बल्कि एक निहायत ही अदना कारोबारी सवाल है। ऐसा भद्दा इशारा है जो ख़ुश-ज़ौक़ आदमियों को हरगिज़ इस्तिमाल नहीं करना चाहिए। इसमें बनियापन है और कंधे रगड़ना या धक्के मारना अखाड़ों में होना चाहिए। छेड़-छाड़ कुश्ती गिरी नहीं और भई क्या पता है। दुख से कोई औंधे मुँह गिर पड़े, कोई जोड़ निकल जाये, कोई हड्डी टूट जाये, हंसी में खुन्नसी हो जाये और जनाब सलाम का तो कोई मतलब ही नहीं। ये क्या है कि बार-बार हाथ जोड़े जा रहे हैं। माथे की तरफ़ हाथ ले जाया जा रहा है। इस फेअल में काबिल-ए-रहम बचपन है। फ़ोह्श मज़ाक़ के मुताल्लिक़ कुछ कहना ही फ़ुज़ूल है। मज़ाक़ शाइस्ता होना चाहिए, कोई उसमें बात हो ना कि सिर्फ छेड़ने की ख़ातिर छेड़ दिया जाये। कोई पत्थर उठाकर सर पर मार दिया जाये। पसलियों में ठोंका दे दिया जाये... कोई ज़ाइक़ादार बात होनी चाहिए, जिससे दिल-ओ-दिमाग़ को फ़रहत हासिल हो। शगुफ़्तगी सी पैदा हो। आदमी एक दो-घड़ी के लिए ख़ुश हो जाये ऐसी छेड़-छाड़ हमें पसंद है और ख़ुदा करे कि ये हमेशा जारी रहे। इससे बड़ा लुत्फ़ हासिल होता है। जवानी की दास्तान में इस किस्म के चुटकुले ज़रूर होने चाहिऐं ये ना हो तो कहानी बिल्कुल ख़ुश्क और बेमज़ा होगी।”

    उन दो लड़कियों में से एक ने ये भी कहा। ''बद-सूरत और करीहत-उन-नज़र मर्दों को तो छेड़ने का कोई हक़ ही नहीं, अगर वो छेड़ना ही चाहते हैं तो ऐसी औरतों को मुंतख़ब किया करें जो उनका जोड़ हो या बद-सूरती में उनसे कुछ ज़्यादा ही नंबर लेती हो। बद-सूरत मर्दों का ख़ुश शक्ल औरतों को छेड़ना मेरे नज़दीक एक बहुत बड़ा जुर्म है। मैं ख़ूबसूरत नहीं हूँ लेकिन वो सदमा जो ख़ुश शक्ल औरतों को ऐसे मर्दों की छेड़-छाड़ से होता है अच्छी तरह समझ सकती हूँ।”

    (1) ये लड़की ख़ूबसूरत थी।

    बारहवीं यानी आख़िरी लड़की ने इस सवाल के जवाब में कहा। “मर्दों की छेड़-छाड़ के मुताल्लिक़ मेरा ख़्याल बहुत अच्छा है। मुझे ये चीज़ पसंद है। इस की वजह सिर्फ ये है कि मैं बहुत शरीर हूं। मैं चाहती हूं कि मर्द मुझे छेड़ें ताकि जवाब में उनको मैं भी छेड़ सकूं। वो औरतें जो समझती हैं कि मर्दों को छेड़ ही नहीं सकतीं, बेवक़ूफ़ हैं। वो सोचती ही नहीं कि मर्दों को इतनी सहूलियतें मयस्सर नहीं जितनी कि हमें हैं। हमारा जवाबी हमला इन्हें बौखला सकता है, उनकी सिटी गुम कर सकता है। उन्हें लाजवाब कर सकता है इसलिए कि हम औरतें हैं। उनको इसका हर हालत में लिहाज़ करना पड़ता है। मर्द औरत को कमज़ोर, कम ज़बान और कम-अक़्ल समझता है उसके इस नज़रिए से हमें फ़ायदा उठाना चाहिए। औरत कमज़ोर सही लेकिन वो कम ज़बान और कम-अक़्ल तो नहीं। अपनी अक़्ल और अपनी ज़बान से क्यों ना फ़ायदा उठाया जाये। मैं समझती हूँ कि मर्दों के मुक़ाबले में हम औरतें कहीं ज़्यादा ज़हीन और ताबे हैं। हम अगर चाहें तो मर्दों की ज़बान बंद कर सकती हैं। उनकी सारी चालाकी ख़त्म कर सकती हैं... औरत के सामने मर्द हैसियत ही क्या रखता है। औरत से दूर मर्द सब कुछ है, पर जब वो औरत के सामने आता है तो कशकोल उठाने वाला भिकारी बन जाता है क्योंकि औरत से वो सिवाए ख़ैरात के और मांगता ही किया है। मर्द के लिए औरत दिलचस्प चीज़ है, औरत के लिए मर्द भी कम दिलचस्प चीज़ नहीं और मेरा तो ये ख़्याल है कि ऐसी दिलचस्प चीज़ ख़ुदा ने पैदा ही नहीं की... अक्सर औरतें मर्द को उन आँखों से देखती हैं जिनसे वो अपने बाप और भाइयों को देखने की आदी हैं। ये ग़लत है, सब मर्द, बाप और भाई तो नहीं होते।'

    दूसरे सवाल का जवाब पहली नौ में से पाँच लड़कियों ने इस तौर पर दिया। ''हम नफ़रत से मुँह फेर लेती हैं। या दिल ही दिल में उनको कोस कर ख़ामोश हो जाती हैं।”

    नौ में से बाक़ी चार लड़कियों ने कहा। “अगर अकेली हूँ यानी साथ कोई मर्द ना हो तो मजबूरन ख़ामोश हो जाना पड़ता है लेकिन अगर कोई साथ मर्द हो तो उस की मदद ले ली जाती है। ऐसे मौक़ों पर साथ वाले मर्द अक्सर यही कहा करते हैं। “तुम्हें शर्म नहीं आती... क्या तुम्हारी माँ बहन नहीं।” यूं शर्म दिलाने पर हमारी तसल्ली ज़ाहिर है कि ख़ाक भी नहीं होती मगर क्या-किया जाये, सर-ए-बाज़ार झगड़ा करने से तो हम रहीं।”

    उन चार लड़कियों में से एक ने कहा। “नहीं बाबा मैं तो ख़ामोश नहीं रह सकती, अगर कोई मर्द मेरे साथ ऐसी हरकत करे तो मैं लड़ने मरने पर उतर आती हूँ। मुझमें ज़र्रा भर बर्दाश्त का माद्दा नहीं है। मैं तो गालियों का तांता बांध दिया करती हूँ और क्या मजाल है कि छेड़ने वाला चूँ भी कर जाये। शरीफ़ औरतों से दिल्लगी करना ख़ाला जी का घर तो नहीं और भई अपने दिल की भड़ास तो ज़रूर निकाल लेनी चाहिए। चाहे इसमें अपनी बदनामी ही क्यों ना हो।”

    1. अगर छेड़-छाड़ शाइस्ता और तहज़ीब के दायरे के अंदर हो तो मैं मुस्करा दिया करती हूं। बस ज़रा सी मुस्कुराहट जिससे सिर्फ़ दाद का इज़हार हो, होंटों और आँखों में पैदा की और चल दिए। मर्दों को ज़्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए क्योंकि ज़्यादा मुँह लगाने से ये अक्सर बिगड़ जाते हैं, अगर किसी ने तहज़ीब से गिरा हुआ मज़ाक़ किया तो हिक़ारत के आसार चेहरे पर ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा हो जाते हैं। छेड़-छाड़ करने वाला यक़ीनी तौर पर औरत के चेहरे की तरफ़ देखता है, जब उसे अपनी हिमाक़त का जवाब मिल जाता है तो दिल ही दिल में ख़जिल हो कर एक तरफ़ सिमट जाता है। मेरा ज़ाती ख़्याल है कि मर्द चाहे कितना ही ज़लील हो उसके अंदर शर्म-ओ-हया का माद्दा ज़रूर होता है। खासतौर पर जब कोई औरत उसको शर्मिंदा करने की कोशिश करे तो वो ज़रूर शर्मिंदा हो जाता है।

    2. अगर छेड़-छाड़ निहायत ही आमियाना और बाज़ारी किस्म की हो तो मैं ना छेड़ने वाले की तरफ़ ग़ौर करती हूँ ना उसके फेअल की तरफ़। ऐसे बद-ज़ौक़ लोगों को एहमियत देना बहुत बड़ी ग़लती है। अलबत्ता ख़ुश-ज़ौक़ मर्दों की छेड़-छाड़ की रसीद ज़रूर देनी चाहिए। सिर्फ रसीद, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। बद-शक्ल मर्दों की छेड़-छाड़ का जवाब में अपनी ज़बान निकाल कर या ठेंगा दिखा कर दिया करती हूँ। मैंने बहुत कोशिश की कि नफ़रत और हिक़ारत का कोई और अच्छा ज़रिया-ए-इज़हार मिल जाये मगर ठेंगा दिखाने से ज़्यादा आसान, बा-असर और क़रीब-उज़-ज़रिया इज़हार मुझे अभी तक नहीं मिला। दरअसल कहना ये होता है। “ये मुना और मुसव्विर की दाल... ज़रा आईने में रुख-ए-मुबारक तो देखिए। ऐसा मालूम होता है कि किसी ने Gig saw puzzle निहायत भोंडेपन से जोड़ने की कोशिश की है।” बहुत कुछ कहने को जी चाहता है यही वजह है कि ख़ुद-ब-ख़ुद ठेंगा उनकी जानिब उठ खड़ा होता है और दिल को थोड़ी सी तस्कीन हासिल हो जाती है... ये मैं अभी तक नहीं समझ सकी कि अंगूठे का इन जज़्बात से क्या ताल्लुक़ है।

    3. मैं मर्द के हर हमले का जवाब देने की क़ाइल हूं ख़्वाह वो कितना ही ओछा क्यों ना हो मैं चाहती हूं कि हर औरत उसे अपना उसूल बना ले।

    तीसरे सवाल यानी “आपको क्यों छेड़ा जाता है?” के जवाब में पहली नौ लड़कियों और औरतों ने कहा जाने हमारी बला... बुरी आदत जो हुई जिन लोगों के अख़लाक़ बिगड़ जाएं ऐसी हरकतें ही तो करते हैं। एक दफ़ा अगर उनका दिमाग़ जूतों से पिलपिला कर दिया जाये तो आइन्दा कभी उनको जुर्रत ना हो।”

    बाक़ी तीन लड़कीयों ने तरतीब-वार इस सवाल के जवाब में ये कहा:

    1. हम औरतों और मर्दों के दरमियान एक निहायत ही लतीफ़ पर्दा हाइल है। इस शफ़्फ़ाफ़ पर्दे में से मर्द अक्सर हमारी तरफ़ ताज्जुब आमेज़ दिलचस्पी की निगाहों से देखते हैं। शीशे की अलमारी में रखी हुई चीज़ें ख़्वाह-मख़ाह दिलचस्प हो जाती हैं। हम शीशे की अलमारियों में रखी हुई नुमाइशी चीज़ें हैं मगर लुत्फ़ ये है कि हमें इन अलमारियों में ख़ुद मर्दों ही ने बंद कर रखा है।

    2. जिस पंच पर ये लिखा हो। “रौग़न गीला है” उसको उंगली से छू कर ज़रूर देखा जाएगा। जिस दीवार पर हुक्म इमतिनाई लिखा हो। “यहां इश्तिहार लगाने मना हैं।” उस पर इश्तिहार ज़रूर चस्पाँ किए जाऐंगे। जिस रास्ते पर “ये शाहराह आम नहीं” का बोर्ड लगा हो। उस रास्ते से लोग ज़रूर गुज़़रेंगे... औरत भी एक किस्म का गीला रौग़न है, वो दीवार है जिस पर इश्तिहार लगाना मना है या वो सड़क है जिस पर ये “शाहराह आम नहीं” का बोर्ड लगा है।

    3. हमें इसलिए छेड़ा जाता है कि हम छेड़ने की चीज़ हैं। अगर मर्द हमें ना छेड़ें तो किसे छेड़ें... घोड़ियों को।

    चौथा सवाल ये था। “क्या आप मर्दों को छेड़ती हैं?” इसका जवाब मैंने पहली नौ लड़कियों से पूछना मुनासिब ख़्याल ना किया।

    बाक़ी तीन लड़कियों में से पहली दो ने कहा “हमने आज तक इस मुआमले में कभी पहल नहीं की। दरअसल हम डरपोक हैं। कई दफ़ा जी चाहा है कि छेडख़ानी की जाये मगर हिम्मत नहीं पड़ी। एक बात ये भी है कि पहल मर्दों ही की तरफ़ से होनी चाहिए।”

    आख़िरी लड़की ने कहा। “क्यों नहीं, मैं ज़रूर छेड़ती हूं। जब मौक़ा मिले छेड़ती हूं। अगर मौक़ा ना मिले तो मौक़ा पैदा कर लेती हूं। मौके़ पैदा करना औरत के लिए क्या मुश्किल हैं। मर्द को तो मौक़ा की तलाश में घंटों ज़ाए करने पड़ते हैं। अपने अंदर जुर्रत पैदा करनी पड़ती है। सारी ऊंच-नीच पर ग़ौर करना पड़ता है, मगर औरत ये इबतिदाई मरहले तय किए बग़ैर अपना काम कर सकती है। मर्द के चेहरे पर इन इबतिदाई तैयारियों के आसार नज़र जाते हैं, यानी वो कुछ मुज़्तरिब सा, कुछ बेवक़ूफ़ सा दिखाई देता है जूंही ये आसार नज़र आएं औरत को फ़ौरन अपना पिस्तौल चला देना चाहिए। उसकी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जाएँगी। मैं तो अक्सर यही किया करती हूँ। यूं मैंने कई शिकारी शिकार करने से पहले शिकार किए हैं।”

    आख़िरी सवाल के जवाब में पहली नौ लड़कियों और औरतों में से सिर्फ चार मंदर्जा ज़ेल वाक़ियात बयान कर सकें,

    एक ने कहा, “मैं स्कूल में पढ़ती थी और हर-रोज़ ताँगे पर जाती थी। एक दिन मैंने ताँगा स्टेशनरी की दुकान पर ठहराया क्योंकि मुझे कोह-ए-नूर पेंसिल लेनी थी। मुझे मालूम नहीं, साईकिल पर एक लड़का मेरे पीछे पीछे रहा था। जब मैंने पेंसिल निकालने के लिए दुकानदार से कहा तो वो झट से आगे बढ़ा और दुकानदार से कहने लगा। “एक पेंसिल कोह-ए-नूर मेरे लिए भी।” दुकानदार दो पेंसिलें निकाल कर ले आया। 'कितने पैसे?' उस लड़के ने पूछा। दुकानदार ने जवाब दिया 'साढे तीन आने' लड़के ने पेंसिल फेंक दी और कहा। 'तुमने तो सरीहन लूट मचा रखी है। दूसरी दुकान पर ये पेंसिल तीन आने में मिलती है' फिर वो मुझसे मुख़ातिब हुआ। 'आईए मैं आपको वो दुकान दिखा दूं।' मेरे जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर उसने साईकिल के पैंडल पर पैर रखा और कोचवान को अपने पीछे आने का इशारा करके चल पड़ा। मैंने दिल में सोचा, ‘ये दुकानदार वाक़ई बहुत गिरां फ़रोश है ज़रूर उस पेंसिल में ये दो पैसे ज़्यादा मुनाफ़ा ले रहा है।' चुनांचे ताँगा उस लड़के की साईकिल के पीछे पीछे चला। थोड़ी ही दूर चलकर वो साईकिल पर से उतरा और मुझसे कहने लगा। 'ये दुकान है।' फिर उसने दुकानदार से बड़ी बे-तकल्लुफ़ी के साथ कहा। मौलवी-साहब कोह-ए-नूर की दो पेंसिलें निकालिएगा। दुकानदार फ़ौरन दो पेंसिलें निकाल कर ले आया। इस पर लड़के ने मुझसे कहा। 'इस को तीन आने दे दीजिए।' मैंने तीन आने अदा कर दिए। लड़का सामने स्कूल में दाख़िल हो गया और मैं आगे चल दी। स्कूल जा कर मैंने एक सहेली से बात की। उसने कहा। 'कोह-ए-नूर की पेंसिल तो हर जगह साढे़ तीन आने में मिलती है। उस दुकानदार ने तीन आने में कैसे दे दी।' मैंने कहा। तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें उससे ले दूँगी। स्कूल का टाइम ख़त्म होने से पहले पहले चार लड़कियां मेरे साथ चलने को तैयार हो गईं। हम सब उस दुकान पर गईं। मैंने चार पेंसिलें उनको इसी दाम पर ले दीं। दूसरे रोज़ छः मैंने अपने भाई जान के लिए खरीदें। शाम को जब मैं अपनी उस्तानी के लिए बारह पेंसिलें ख़रीदने के लिए उस दुकान पर पहुंची तो दुकानदार ने कहा 'वो साहिब जो उस रोज़ आपके साथ आए थे छः आने जमा करा गए थे, एक पेंसिल उन्होंने ले ली थी, उस के पूरे दाम उन्होंने दे दिए थे। ग्यारह पेंसिलें आपने लीं। तीन आने के हिसाब से छः आने में से जो उन्होंने ये कमी पूरी करने के लिए जमा कराए थे, दो पैसे बाक़ी बचते हैं। आप एक पेंसिल ले जा सकती हैं... ये सुन कर मुझे बेहद शर्म आई और गु़स्सा भी बहुत आया। समझ में नहीं आता कि उसने ये शरारत क्यों की। ये वाक़िया इसी वजह से मुझे अब तक याद है।

    दूसरी ने कहा, “...मेरे पेट में था। हम लोग पहली मर्तबा क़ुतुब देखने गए थे और मैं आहिस्ता-आहिस्ता उनके पीछे सीढ़ियां तय कर रही थी। एक अंधेरा था दूसरे मेरी तबियत ख़राब थी। क़दम फूंक फूंक के रखना पड़ता था। दम फूल रहा था और सर चकरा रहा था। इन तमाम मुसीबतों के बावजूद मैंने तहय्या कर रखा था कि आख़िरी मंज़िल तक ज़रूर पहुँचूँगी ख़ाह रास्ते ही में दम निकल जाये, लेकिन दूसरी मंज़िल तक पहुंचते पहुंचते मेरी तबीयत इतनी ख़राब हुई कि मुझे दीवार का सहारा लेकर रुकना पड़ा। दो नौजवान लड़के मेरे पीछे पीछे रहे थे। उनमें से एक ने अपने साथी से मुख़ातब हो कर कहा। 'अगर क़ुतुबउद्दीन ऐबक को इस बात की ख़बर होती तो लाठ के बजाय उसने यक़ीनन मैटरनिटी होम तामीर कराया होता...' दाँत पीस कर ही तो रह गई। उन अल्लाह के मारों को मज़ाक़ भी कब सूझता है।'

    तीसरी ने कहा- 'पिताजी की तब्दीली लाहौर हुई तो हमने... में एक मकान किराए पर लेकर रहना शुरू किया। सर्दियों का मौसम आया तो मैं पहली मर्तबा धूप सेंकने के लिए कोठे पर चढ़ी। सामने ही एक और कोठा था। वहां एक लड़का खड़ा था। उसने मुझे देखते ही हाथ जोड़ कर नमस्ते की। मुझे उस की इस हरकत पर बहुत गु़स्सा आया चुनांचे मैंने फ़ौरन आवाज़ दी। 'माता जी!' लड़के ने जब ये आवाज़ सुनी तो जोड़े हुए हाथ खोल दिए और बाज़ू फैला कर वर्ज़िश शुरू कर दी। बाँहों के बाद उसने टांगों की वर्ज़िश की और दस मिनट के बाद मुझे देखता हुआ नीचे उतर गया। उसकी इस दिलचस्प हरकत पर मुझे बेहद हंसी आई। इस वाक़िये को चार बरस गुज़र चुके हैं मगर जब कभी मैं उस लड़के के बस्ता हाथों का तसव्वुर करती हूं जो मेरे 'माता जी' कहने पर वर्ज़शी अंदाज़ में खुल गए थे तो मुझे बे-इख़्तियार हंसी आती है।'

    चौथी ने कहा- ''हम हर रोज़ स्कूल से फ़ारिग़ हो कर एक क़तार में वापिस आया करती थीं। स्कूल प्राईवेट क़िस्म का था। हमारे साथ हेडमास्टर भी हुआ करता था। एक रोज़ इसी तरह हम वापिस रही थीं कि हाल बाज़ार में हमारी चार लड़कों से मुठभेड़ हुई जो ग़ालिबन हॉकी खेलने जा रहे थे क्योंकि हर एक के हाथ में स्टिक थी। उन लड़कों में से एक ने हम सब को घूर-घूर के देखा। हम में कुछ बहुत छोटी भी थीं। उनकी तरफ़ उसने ग़ौर ना किया। जो जवान थीं उनको उसने बुलंद आवाज़ में गिनना शुरू कर दिया। 'एक... दो... तीन... चार...' हेडमास्टर साहब, ये देखकर फ़ौरन आगे बढ़े। 'तुम्हें शर्म आनी चाहिए' लड़के ने जैसे हेडमास्टर साहब की बात सुनी ही नहीं, कहने लगा 'पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस... दस गोल... हाफ टाइम में दस गोल कौन यक़ीन करेगा हेडमास्टर साहब ख़ामोश हो गए। उन्होंने दिल में सोचा होगा कि चलो अच्छा हुआ जो उसने मेरी बात ना सुनी वर्ना ख़्वाह-मख़ाह झगड़ा हो जाता... मुझे उस लड़के की ये चालाकी कभी नहीं भूलेगी। बात का कांटा बदलते वक़्त उसके चेहरे पर मजाल है जो ज़रा भर घबराहट नज़र आई हो।'

    बाक़ी तीन लड़कीयों ने आख़िरी सवाल के जवाब में तरतीब-वार ज़ैल के वाक़ियात बयान किए,

    1. ये बंबई की बात है, मैं और मेरी सहेली दोनों बस में माहिम का मेला देखने जा रही थीं। मौसम बहुत अच्छा था। शाम का वक़्त था। हम बालाई मंज़िल पर थीं। इसलिए हवा के झोंके ख़ूब मज़ा दे रहे थे। जब बस दावर के पुल पर चढ़ी तो इधर उधर रेलवे लाईनों का एक जाल सा बिखरा नज़र आया। मेरे इस तरफ़ दूसरी रौ में एक ख़ुश शक्ल लड़का बैठा था। सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाने की नाकाम कोशिश करते हुए उसने खिड़की में से बाहर झांक कर देखा और अपने साथी से कहा। 'हाथी, सफ़ेद हाथी।' मैंने अपनी सीट पर से ज़रा उठकर उस तरफ़ देखा, मगर मुझे हाथी नज़र ना आया। इस पर उस लड़के ने मुझसे मुख़ातब हो कर बड़े फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कहा। 'इसे तख़य्युल की फ़ुसूँ-कारी कहते हैं...' बात बड़ी मामूली है मगर ये वाक़िया मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में हमेशा के लिए मुर्तसिम हो चुका है। 'इसे तख़य्युल की फ़ुसूँ-कारी कहते हैं।' उस गोरे चिट्टे लड़के ने ये फ़िक़रा ऐसे दिलकश अंदाज़ में कहा कि मैं बेहद मुतास्सिर हुई। उसकी आँखों में मस्नूई शायरानापन था। चेहरे पर एक अजीब किस्म की क़लंदराना मितानत थी। फिर मुझे मुस्कराता देखकर उसके होंटों पर जो तबस्सुम पैदा हुवा, उसमें अच्छी बनी हुई चाय की सी घुलावट थी।

    2. सर्दियों का मौसम था। रगों में ख़ून मुंजमिद हुआ जाता था। इन्ही दिनों में हमारा एक दूर का रिश्तेदार मुलाज़मत की तलाश में आया और कुछ देर हमारे पास ठहरा। ये लड़का जिसकी उम्र बाईस बरस के क़रीब होगी। अच्छे डील-डौल का था। भरा भरा जिस्म जो किसी हद तक मोटापे की तरफ़ माइल था। गाल सुर्ख़-रंग सफ़ेद जैसा कि आम तौर पर कश्मीरियों का होता है। दूध पीने का बहुत क़ाइल था। आते ही उसने अम्मी जान से कहा। 'आपको तकलीफ़ तो ज़रूर होगी मगर मैं नाश्ते पर एक गिलास दूध और दो कच्चे अंडे ज़रूर पिया करता हूँ। खाता भी ख़ूब हूं।'

    उस को वर्ज़िश का भी शौक़ था। चुनांचे सुबह उठ कर डंबलों से एक्सर-साइज़ करता था और उसके बाद ठंडे पानी से नहाना फ़ख़्र समझता था। एक रोज़ मैंने उससे पूछा 'इतनी सर्दी में ठंडे बर्फ़ पानी से नहाना क्या ज़रूरी है और फिर हर-रोज़।’ इसके जवाब में उसने अपनी छाती चौड़ी करते हुए कहा। 'मुझे तो बिलकुल सर्दी महसूस नहीं होती। ख़ुदा जाने आप लोगों के दाँत क्यों बजते रहते हैं। इधर मेरी तरफ़ देखिए सिर्फ एक क़मीज पहने हूं, नीचे बनियान भी नहीं, बहुत ज़्यादा सर्दी हो तो चंद दिनों के लिए ये तकल्लुफ़ करना पड़ता है वर्ना कभी नहीं।'

    तीन चार रोज़ तक उसने हम सब पर इस तरह रोब गांठा। जब मुलाज़मत ना मिली तो मायूस हो कर वो मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुआ और कुछ छेड़-छाड़ शुरू की। मुझे चूँकि हर-रोज़ नहाने से और दूध पीने से सख़्त नफ़रत है। इसलिए मैंने उससे बदला लेने की ठानी। उसके और मेरे दरमियान जो बातें हुईं, मैं बयान करना नहीं चाहती। क़िस्सा मुख़्तसर ये है कि हमने एक रात कोठी के बाहर अस्तबल में मिलना तय कर लिया। अब कुछ अस्तबल के मुताल्लिक़। ये एक छोटी सी कोठड़ी है जिसे अब्बा जी अस्तबल कहा करते हैं। इसमें एक अदद गाय बंधी रहती है। रात के बारह बजे यानी मुक़र्ररा वक़्त पर वो अपने कमरे से खिसक कर अस्तबल के पास गया। मैं भी किसी ना किसी तरीक़े से वहां पहुंच चुकी थी। जूं ही वो आया मैंने उसे अस्तबल के अंदर दाख़िल कर दिया। आप कुछ देर यहां खड़े रहें मैं कोठी के अंदर जा कर अपना इत्मिनान कर आऊँ। मुम्किन है कोई जागता हो।'

    उसने जब गाय को देखा तो ठिटका। मैंने मुस्कुरा कर कहा। 'आपको तो इसके दूध से बहुत प्यार है। डरते क्यों हैं मैं अभी आई।' मैंने उसको अंदर दाख़िल किया और बाहर से दरवाज़ा बंद करके कुंडी चढ़ा दी।

    सुबह छः बजे के क़रीब इत्तिफ़ाक़न जब मेरी आँख खुली तो मुझे उसका ध्यान आया। मेरा दिल धक धक करने लगा। दौड़ी दौड़ी गई। किवाड़ के एक सुराख़ से मैंने अंदर देखा। वो गाय का काला और खुर्दरा कम्बल ओढ़े गाय पर बैठा था। मैंने दरवाज़ा खोला और उससे कहा 'माफ़ कीजिएगा। मैंने वापिस आने की बहुत कोशिश की मगर अम्मी जान ने मुझे अपने साथ लिटा लिया। उन्हें बहुत सर्दी लग रही थी। मैं कैसे आपसे माफ़ी माँगू। आपको बहुत तकलीफ़ हुई होगी।'

    उसने मेरी किसी बात का जवाब ना दिया। शुक्र है कि घर में किसी को इस वाक़िये की ख़बर ना हुई। आठ बजे के क़रीब उसने नौकर को बुलाया और कहा। 'आज मैं गर्म पानी से नहाऊंगा। फिर नौ बजे जब नाश्तादान चुना गया तो उसने दूध पीने से इनकार कर दिया। 'मैं आज चाय पिऊंगा।’

    मुझे इस क़दर मसर्रत हासिल हुई कि मैं बयान नहीं कर सकती। अब उससे मेरी बाक़ायदा ख़त-ओ-किताबत जारी है।

    3. दो बरस पहले की बात है जिसका मेरी शरारत पसंदियों से कोई ताल्लुक़ नहीं। यूं तो मेरी ज़िंदगी में ऐसे बहुत से वाक़िये हैं जो याद रखने के काबिल हैं, लेकिन ये वाक़िया जो मैं अब बयान करूँगी। ऐसा है जो मुझे हमेशा याद रहेगा। मैं बहुत शरीर हूँ। हाज़िर-जवाब तो बला की हूं। मैं कभी परेशान नहीं हुई थी लेकिन ज़िंदगी में पहली मर्तबा जब मुझे परेशानी का सामना करना पड़ा तो अजीब-ओ-ग़रीब लुत्फ़ का एहसास हुआ। जैसा कि आपको वाक़िये के बयान से मालूम होगा। मेरी परेशानी का बाइस किसी मर्द की चालाकी या होशयारी नहीं थी बल्कि महज़ एक हादिसे की वजह से मुझे बेहद ख़फ़ीफ़ होना पड़ा।

    मैंने ट्रेन में कभी सफ़र नहीं किया था लेकिन मजबूरन एक रोज़ मुझे उस में सवार होना पड़ा। मुझे जल्दी पहुंचना था। बस आने में पाँच मिनट बाक़ी थे। ट्रेन सामने खड़ी थी, चुनांचे मैं उसमें बैठ गई। मेरे सामने एक बहुत ही मोटा पारसी बैठा था। उसकी तोंद इस क़दर बढ़ी थी और उसकी गर्दन जिस पर कलफ़ लगा कालर चढ़ा था इस क़दर मोटी थी कि अगर वो नीचे फ़र्श की तरफ़ देखना चाहता तो उसे लेटना पड़ता। मुझे सख़्त ज़ुकाम हो रहा था। मेरे हाथ में एक छोटा सा रेशमी रूमाल था जिससे मैं बार-बार अपनी नाक साफ़ कर रही थी। जब ट्रेन चली तो लाल बाग़ के क़रीब एक हवा का ज़बरदस्त झोंका आया। रूमाल मेरे हाथ से उड़ा और उस मुए पारसी की रान पर जा गिरा। कुछ देर तक मैंने दिल ही दिल में कई तरीक़े ये रूमाल हासिल करने के लिए सोचा। ये भी ख़्याल आया कि उसे मुख़ातब कर के कहूं। 'मेरा रूमाल गिर गया है, बराह-ए-मेहरबानी मुझे दे दीजिए।' लेकिन सोचा कि वो गर्दन झुका कर कैसे देख सकेगा। मैं ख़ुद उस को बता कर वहां से रूमाल उठाना नहीं चाहती थी, चुनांचे मैंने इरादा कर लिया कि चुप चाप आँख बचा कर दो उंगलियों की मदद से बिल्कुल आहिस्तगी के साथ उसे उठा लूँगी। मैंने कई मर्तबा कोशिश की लेकिन हर बार इस डर के मारे कि ट्रेन में बैठा हुआ कोई और आदमी देख लेगा। मुझे अपना हाथ खींचना पड़ा।

    मुझे ग़ैर-मामूली तौर पर मुज़्तरिब देखकर पारसी को ऐसा महसूस हुआ कि फ़िज़ा में कुछ गड़-बड़ सी है, मुझे खिड़की में से बाहर झाँकते देखकर कई मर्तबा उसे भी अपनी अकड़ी हुई गर्दन मोड़ कर बाहर झांकना पड़ा।

    चाहिए तो ये था कि मैं उस रूमाल को वहीं छोड़ देती और बाज़ार से एक और ख़रीद लेती मगर वो एक दोस्त का तोहफ़ा था इसलिए मुझे बेहद अज़ीज़ था। मैंने आख़िरी बार इरादा कर के जब हाथ उस तरफ़ बढ़ाया तो पारसी बेचैन हो गया। मैं उसकी तरफ़ ख़ुदा मालूम किन निगाहों से देख रही थी। उसको अब पक्का यक़ीन हो गया कि मेरे इज़तिराब का बाइस उस का कोई ऐसा नुक़्स है जिससे वो अभी तक ग़ाफ़िल है। उसने बड़ी वक़अत से अपनी गर्दन झुकाई। मोटे मोटे गुदगुदे हाथ रानों पर इधर-उधर फेरे। एक हाथ के नीचे मेरा रूमाल आया। एकदम उसका चेहरा लाल सुर्ख़ हो गया। जल्दी से बड़ी फुर्ती के साथ उसने उंगलियों की मदद से मेरे उस नन्हे से रूमाल को अपनी पतलून के अंदर दाख़िल कर लिया... कमबख़्त ने ये ख़्याल किया कि उसकी क़मीज का दामन बाहर निकला हुआ है उधर उसका चेहरा लाल हो रहा था इधर मेरा। हम दोनों अपनी अपनी जगह पर शर्म महसूस करते रहे। मैं तो इस हादिसे को ज़्यादा देर तक बर्दाश्त ना कर सकी। जूंही ट्रेन ठहरी मैं उस पारसी की तरफ़ देखे बग़ैर उतर गई।

    मैं इस वाक़िये को क़रीब क़रीब भूल चुकी थी कि छः या सात महीने के बाद कराफ़ोर्ड मार्किट के पास जब कि मैं एक दुकान से भुना हुआ पिस्ता ले रही थी एक ख़ुशपोश नौजवान मेरे क़रीब आया। उसने अपनी जेब में से बारीक काग़ज़ में लिपटी हुई एक चीज़ निकाली और मुझसे कहा। 'माफ़ फ़रमाइएगा। आपकी एक चीज़ गुम हो गई थी जो मुझे मिल गई। आज हाज़िर कर रहा हूं।'

    मैंने बारीक काग़ज़ खोल कर देखा तो मेरा चेहरा कानों तक सुर्ख़ हो गया... वही रूमाल था जो उस मुए पारसी ने अपनी पतलून में दाख़िल कर लिया था... मुझे बेहद शर्म महसूस हुई। गु़स्सा भी बहुत आया। थोड़ी सी हंसी भी आई और मैं हैरान हुईं कि एकदम मेरी आँखों में आँसू भी गए... शायद इसलिए कि मैंने उस नौजवान को अब पहचान लिया था। ट्रेन में ये उस रोज़ दूर एक कोने में बैठा था... मुझे कोई बात ना सूझी... ठीक तौर पर मैं अपने ख़िसयानेपन का भी इज़हार ना कर सकी।

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 29)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

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