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सआदत हसन मंटो के लेख
हिंदुस्तान को लीडरों से बचाओ
हम एक अर्से से ये शोर सुन रहे हैं। हिन्दुस्तान को इस चीज़ से बचाओ। उस चीज़ से बचाओ, मगर वाक़िया ये है कि हिन्दुस्तान को उन लोगों से बचाना चाहिए जो इस क़िस्म का शोर पैदा कर रहे हैं। ये लोग शोर पैदा करने के फ़न में माहिर हैं। इसमें कोई शक नहीं, मगर उनके दिल
हिंदी और उर्दू
‘‘हिन्दी और उर्दू का झगड़ा एक ज़माने से जारी है। मौलवी अब्दुल-हक़ साहब, डाक्टर तारा चंद जी और महात्मा गांधी इस झगड़े को समझते हैं लेकिन मेरी समझ से ये अभी तक बालातर है। कोशिश के बावजूद इस का मतलब मेरे ज़हन में नहीं आया। हिन्दी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त
बातें
बंबई आया था कि चंद रोज़ पुराने दोस्तों के साथ गुज़ारूँगा और अपने थके हुए दिमाग़ को कुछ आराम पहुंचाऊंगा, मगर यहां पहुंचते ही वो झटके लगे कि रातों की नींद तक हराम हो गई। सियासत से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। लीडरों और दवा-फ़रोशों को मैं एक ही ज़ुमरे में शुमार
इस्मत फ़रोशी
इस्मत-फ़रोशी कोई ख़िलाफ़-ए-अक़्ल या ख़िलाफ़-ए-क़ानून चीज़ नहीं है। ये एक पेशा है जिसको इख़्तियार करने वाली औरतें चंद समाजी ज़रूरियात पूरी करती हैं जिस शैय के गाहक मौजूद हो, अगर वो मार्किट में नज़र आए तो हमें ताज्जुब ना करना चाहिए, अगर हमें हर शहर में ऐसी औरतें
शरीफ़ औरतें और फ़िल्मी दुनिया
जब से हिन्दुस्तानी सनअत-ए-फ़िल्म साज़ी ने कुछ वुसअत इख़्तियार की है, समाज के बेशतर हलक़ों में ये सवाल बहस का बाइस बना हुआ है कि शरीफ़ औरतों को इस मुल्की सनअत से इश्तिराक करना चाहिए या नहीं। बाअज़ असहाब इस सनअत को कसबियों और बाज़ारी औरतों की 'नजासत' से
मुझे शिकायत है
मुझे शिकायत है उन लोगों से जो उर्दू ज़बान के ख़ादिम बन कर माहाना, हफ़्ता या रोज़ाना पर्चा जारी करते हैं और इस 'ख़िदमत' का इश्तिहार बनकर लोगों से वसूल करते हैं मगर उन मज़मून निगारों को एक पैसा भी नहीं देते। जिनके ख़्यालात-ओ-अफ़्क़ार उनकी आमदनी का मूजिब होते
मुझे भी कुछ कहना है
माहवार रिसाला 'अदब-ए-लतीफ़' लाहौर के सालनामा 1942 ई. में मेरा एक अफ़्साना बा-उनवान 'काली शलवार' शाया हुआ था जिसे कुछ लोग फ़ोह्श समझते हैं। मैं उनकी ग़लत-फ़ह्मी दूर करने के लिए एक मज़मून लिख रहा हूँ। अफ़साना-निगारी मेरा पेशा है, मैं इसके तमाम आदाब से वाक़िफ़
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
क़ता कीजिए ना ताल्लुक़ हमसे... कुछ नहीं है तो अदावत ही सही... क़त-ए-तअल्लुक़ भी है और नहीं भी है। अदावत भी है और नहीं भी है। अजीब-ओ-ग़रीब मज़मून है। कुछ समझ में नहीं आता कि मर्द और औरत का बाहमी रिश्ता क्या है। औरत की तरफ़ मर्द का मैलान समझ में आ जाता है
मेक्सिम गोर्की
1880 ई. से लेकर 1890 ई. का दरमियानी ज़माना जो खास तौर पर अक़ीम है, रूस की तारीख़ अदब में एक नए बाब का इज़ाफ़ा करता है। दोस्तो वस्की 1881 ईं में सपुर्द-ए-ख़ाक हुआ, तो रगनीफ़ 1883 ईं में राआई मुल्क-ए-अदम हुआ और टालस्टाय कुछ अरसा के लिए सिनहाना तसानीफ़ से
लोग अपने आप को मदहोश क्यों करते हैं?
इस हक़ीक़त की क्या तौज़ीह हो सकती है कि लोग ऐसी शय इस्तिमाल में लाते हैं जो उन्हें ब-ख़ुद मदहोश बना दें। मिसाल के तौर पर शराब, बीयर, चरस, गाँजा, अफ़ीम, तंबाकू और दूसरी चीज़ें जो ज़्यादा आम नहीं मसलन ईथर, मार्फिया वग़ैरा वग़ैरा... इन मनशियात का इस्तिमाल क्यों
सफ़ेद झूठ
माहवार रिसाला 'अदब-ए-लतीफ़' लाहौर के सालनामा 1942 ई. में मेरा एक अफ़्साना बा-उनवान 'काली शलवार' शाया हुआ था जिसे कुछ लोग फ़ोह्श समझते हैं। मैं उनकी ग़लत-फ़ह्मी दूर करने के लिए एक मज़मून लिख रहा हूँ। अफ़साना-निगारी मेरा पेशा है, मैं इसके तमाम आदाब से वाक़िफ़
देहाती बोलियाँ 1
आइए आपको पंजाब के दिहातों की सैर कराएं। ये हिन्दुस्तान के वो दिहात हैं। जहां रूमान तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के बोझ से बिल्कुल आज़ाद है। जहां जज़्बात बच्चों की मानिंद खेलते हैं। यहां का इश्क़ ऐसा सोना है जिसमें मिट्टी मिली हुई है। तसना और बनावट से पाक इन दिहातों
किसान, मज़दूर, सरमायादार, ज़मीनदार
हमारे दो साल के तजुर्बात ने जो हमें क़हत-ज़दा इलाक़ा में इमदादी रक़म तक़सीम करने के दौरान में हासिल हुए हैं, हमारे उन देरीना अफ़्क़ार-ओ-आरा की तसदीक़ कर दी है कि ये मसाइब जिनकी रोक-थाम के लिए हम रूस के एक कोने में बैठ कर बेरूनी ज़राएअ से सई कर रहे हैं। किसी
अगर
अगर ये होता तो क्या होता? और अगर ये ना होता तो क्या होता? और अगर कुछ भी ना होता तो फिर क्या होता...? ज़ाहिर है कि इन ख़ुतूत पर हम जितना सोचेंगे, उलझाओ पैदा होते जाएंगे और जैसा यूरोप के एक बड़े मुफ़क्किर ने कहा है, 'ये ना होता तो क्या होता?' के मुताल्लिक़
सुर्ख़ इंक़िलाब
वुसअत-ए-अर्ज़ी के लिहाज़ से यूरोप में रूस से बड़ी कोई हुकूमत ना थी और ब-लिहाज़-ए-मुतलक़-उल-एनान ज़ार यूरोप के बादशाहों में सबसे बड़ा बादशाह था। रूसियों ने उसे शान-ए-उलूहियत दे रखी थी। वो उस की गु़लामी को अपनी सआदत और उसके हर हुक्म की तामील को अपना फ़र्ज़
देहाती बोलियाँ 2
पंजाब के छोटे छोटे दिहातों में बंजारों की आमद बहुत एहमियत रखती है। औरतें आम तौर पर अपने सिंगार का सामान इन्ही बंजारों से खरीदती हैं। दिहाती ज़िंदगी में बंजारे को अपने पेशे और अपनी चलती फिरती दुकान की वजह से काफ़ी एहमियत हासिल है, चुनांचे दिहाती गीतों
तरक़्क़ी याफ़ता क़ब्रिस्तान
अंग्रेज़ी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन की खूबियां कहाँ तक गिनवाई जाएं। उसने हम ग़ैर मुहज़्ज़ब हिंदुस्तानियों को क्या कुछ अता नहीं किया। हमारी गँवार औरतों को अपने निस्वानी ख़ुतूत की नुमाइश के नित-नए तरीक़े बनाए। जिस्मानी ख़ूबियों का मुज़ाहरा करने के लिए बग़ैर 'आस्तीनों
बिन बुलाए मेहमान
ग़ालिब कहता है, मैं बुलाता तो हूँ उनको मगर ए जज़्बा-ए-दिल उन पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आए न बने यानी अगर उसे बिन बुलाए मेहमानों से कद होती तो ये शे’र हमें उसके दीवान में हरगिज़ न मिलता। ग़ालिब कहता है मैं बुलाता तो हूँ उनको, मगर मेरा जी तो ये चाहता
हिंदुस्तानी सनअत फ़िल्म साज़ी पर एक नज़र
1913 ई. में मिस्टर डी. जी फाल्के ने हिन्दुस्तान की पहली फ़िल्म बनाई और इस सनअत का बीज बोया। दादा फाल्के ने आज से पच्चीस बरस पहले अपनी धर्म पत्नी के जे़वरात बेच कर जो ख़्वाब देखा था उनकी निगाहों में यक़ीनन पूरा हो गया होगा, मगर वो ख़्वाब जो मुल्क के
छेड़ खुबां से चली जाये असद
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही, सो जब तक मर्दों को वस्ल नसीब नहीं होता, वो हसरत ही से अपना दिल बहलाते रहेंगे और ख़ूबाँ से छेड़-छाड़ का सिलसिला जारी रहेगा। ये सिलसिला कब शुरू हुआ। वो मर्द कौन था जिसने पहली बार किसी औरत को छेड़ा। इसके मुताल्लिक़ तारीख़ से हमें
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