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मेक्सिम गोर्की

सआदत हसन मंटो

मेक्सिम गोर्की

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    1880 ई. से लेकर 1890 ई. का दरमियानी ज़माना जो खास तौर पर अक़ीम है, रूस की तारीख़ अदब में एक नए बाब का इज़ाफ़ा करता है। दोस्तो वस्की 1881 ईं में सपुर्द-ए-ख़ाक हुआ, तो रगनीफ़ 1883 ईं में राआई मुल्क-ए-अदम हुआ और टालस्टाय कुछ अरसा के लिए सिनहाना तसानीफ़ से रू-कश रहा। जब उसने क़लम उठाया तो 'अन्ना कारेनीना' और 'वार ऐंड पीस' के मुसन्निफ़ ने बिलकुल जुदा स्पिरिट (स्क्रिप्ट) में अपने अफ़्क़ार को पेश किया। इसी दौरान में रूसी मुआशरत की तब्दीलियां नुमायां तौर पर ज़ाहिर हो गईं। 1863 ई. मज़ारों की आज़ादी के बाद मुल्क की साहब इक़्तिदार जमाअत ने रफ़्ता-रफ़्ता मआशी इक़बाल और सियासी एहमियत से किनारा-कशी इख़्तियार कर ली थी। बेशतर सरमाया-दार क़रीब क़रीब तबाह हो चुके थे और उनकी जायदाद नौ-कसबेह ताजिरों के हाथों में जा रही थी।

    अलेक्जेंडर सोइम (1880-94 ई.) का अह्द-ए-हुकूमत और निकोलस दोयम (1917/1897 ई.)  की हुक्मरानी के पहले चंद साल रूस की अंदरूनी सियासत का बदतरीन ज़माना है। जज़्ब-ए-इस्लाह का वो जोश जो अलेक्जेंडर दोयम के अह्द में रूसी मुआशरा की रगों में मौजज़न था, अब सर्द हो चुका था। मुहज़्ज़ब रूसी, मुआशरती सवालात से दूर हट कर सिर्फ अपने ज़ाती मआमलों पर ग़ौर करते थे। दूसरी तरफ़ उन्नीसवीं सदी के आख़िरी बरसों में मसनूआत ने बड़ी तरक़्क़ी की और बेशतर किसानों ने कारख़ानों की मज़दूरी इख़्तियार कर ली। ये किसान अपना घर-बार छोड़ कर शहरों में आबाद हो गए, मगर फिर भी उनका अपने देहातों से ताल्लुक़ क़ायम रहा। जहां वो टैक्स अदा करते थे। मुल्क में ख़ाना ब-दोश मज़दूरों की तादाद बहुत बढ़ गई। मज़दूरों की ये जदीद जमाअत मार्क्स की इश्तिराकी प्रोपेगंडे के लिए बहुत मौज़ूं थी जो बाद में रूसी इन्क़िलाब की मुहर्रिक हुई।

    दो मुसन्निफ़ जो रूस के इस मुतबद्दल मुआशरती निज़ाम की तस्वीर-कशी करते हैं। चेख़ोफ़ और गोर्की हैं।

    चेख़ोफ़ की वफ़ात से क़बल ये मालूम होता था कि इसकी तसानीफ़ ने हक़ीक़त-निगारी के सुनहरे ज़माने का इफ़्तिताह किया है। जिसका वो अंजाम-कार सिर्फ़ पेश-आहंग था।

    1895 से 1905 के दरमियानी अर्से में बहुत से नौजवान अदीब यके बाद दीगर रूसी फ़िज़ा में उभरे। इन अदबा ने मक़ामी शोहरत हासिल करने के अलावा अकनाफ़ आलम में भी अपने नाम का डंका बजवाया। दोस्तो वस्की और तुर्गनेव से बढ़कर उनको मक़बूलियत हासिल हुई, जिनमें गोर्की और एंडरीफ़ के नाम ख़ास मर्तबा और हैसियत रखते हैं। हम इस अस्र के अदीबों की इज्तिमाई अदबी सरगर्मियों को गोर्की एंडरीफ़ स्कूल कहेंगे। इसलिए कि वो तमाम इंशा-पर्दाज़ जो इस स्कूल में शामिल थे। अपने हमराह ऐसी मुशतर्का ख़ुसुसियात रखते हैं। जो अफ़साना-निगारी के क़दीम 'परी चेख़ोफ़' स्कूल से कोई ताल्लुक़ नहीं रखती हैं।

    जिस स्कूल का हम ज़िक्र कर रहे हैं इसमें गोर्की का नाम ख़ास एहमियत रखता है इसलिए कि हमें इस स्कूल के अक्सर अराकीन की तहरीरों पर उसके अफ़्क़ार का असर नज़र आता है। इस असर की तमाम-तर वजह ये है कि गोर्की ही पहला शख़्स था जिसने रूसी हक़ीक़त-निगारी से ''मुलायम' और ''मुतह्हर' अनासिर यक-क़लम ख़ारिज कर दिए।

    रूसी हक़ीक़त निगारी अख़्लाक़ियात के मुआमला में हमेशा नर्म-ओ-नाज़ुक रही थी। रूसी अदीब, फ़्रांसीसी नावेलिस्टों की ख़ामकारी और हद से मुतजाविज़ साफ़-गोई से परहेज़ करते थे। (उस ज़माने का रूसी अदब किसी हद तक अंग्रेज़ी विक्टोरियन नावेल से मुशाबहत रखता है।) भद्दापन, नजासत और सनफ़ी रिश्तों का शहवानी पहलू रूसी मुसन्निफ़ के लिए हमेशा शजर-ए-मम्नूआ रहा था।

    ये 'अदबी मुआहिदा' टालिस्टाई ने मंसूख़ किया। जिसने पहली मर्तबा मौत और बीमारी की जिस्मानी हैबतों को अपना मौज़ू क़रार देकर ''ऐवान इलीच की मौत' नामी एक तमसील सुपुर्द क़लम की और मुहब्बत के शहवानी पहलू की 'क्रूसर सोनाटा' के औराक़ में नक़ाब-कुशाई की। टालिस्टाई ने इन दो किताबों के तआरुफ़ से दर-हक़ीक़त उन्नीसवीं सदी के ममनूआत और एतिक़ादात की बुनियादें क़तई तौर पर हिला दीं। वो काम जो टालिस्टाई ने शुरू किया था, गोर्की, एंडरीफ़ और आर टी बे शेफ़ के हाथों तकमील हासिल करता रहा। अलावा बर-ईं जदीद  आर्ट का बानी होने की हैसियत में भी टालिस्टाई का असर काफ़ी वाफ़ी था... अफ़साना-निगारी के मा-फ़ौक़-उत-तबअ मसअले ने जो उस के ज़ेर-ए-नज़र था। खासतौर पर एंडरीफ़ और आर टी बे शेफ़ के हाथों ख़ूब नशव-ओ-नुमा हासिल की।

    अदब पर चेख़ोफ़ का असर जुदागाना हैसियत रखता है। एक हद तक मुख़्तसर अफ़साना-निगारी को रूस में मुरव्वज-ओ-मक़बूल करने का सहरा इसी के सर है। बेशतर नौजवान अफ़साना-निगारों ने चेख़ोफ़ का चर्बा उतारने यानी उसकी सनाआना बारीक-रवी को अपनाने की कोशिश की, मगर इस फ़न में उसका कोई मद्द-ए-मुक़ाबिल ना ठहर सका, गो हमें इन नक़्क़ाल अफ़साना-निगारों की इबारत में चेख़ोफ़ की दिलपसंद तराकीब और इज़हार-ए-ख़्याल की मख़सूस तर्ज़ मिलती है मगर ये हक़ीक़त है कि इसकी सनअत-बयानी को वो हरगिज़ नहीं पहुंच सके।

    1900 ई. और 1910 ई. के दरमियानी अरसा में रूसी अदब दो मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तक़सीम हो गया।

    अव्वलन- गोर्की एंडरीफ़ स्कूल

    सानियन इशारा-निगार और उनके पैरौं। ये लोग ऐसे जदीद कल्चर के मुबल्लिग़ थे, जिसने रूसी अज़हान की ख़ूब तर्बियत की और तबक-ए-इल्मी को ब-यक-वक़्त योरोपी और क़ौमी बना दिया।

    रूसी अदब की हयात ताज़ा में मेक्सिम गोर्की का नाम बुलंद-तरीन मर्तबा रखता है। जदीद इंशा-पर्दाज़ों में सिर्फ गोर्की ही ऐसा अदीब है जो टालिस्टाई की तरह अकनाफ़-ए-आलम में मशहूर है। उसकी शौहरत चेख़ोफ़ की मक़बूलियत नहीं जो दुनिया के चंद ममालिक के इल्मी तबक़ों तक महदूद है।

    गोर्की का किरदार फ़िल-हक़ीक़त बहुत हैरत-अफ़्ज़ा है, ग़रीब घराने में पैदा हो कर वो सिर्फ़ तीस साल की उम्र में रूसी अदब पर छा गया।

    तबक़ा अदना का शायर बीसवीं सदी का बाइरन मेक्सिम गोर्की ज़िंदगी की तारीक-तरीन गहराइयों के बत्न से जो जराइम मसाइब और बदियों का मस्कन है, पैदा होता है। उसने फ़क़ीरों की तरह हाथ फैला फैला कर रोटी के सूखे टुकड़े के लिए इल्तिजा ना की और ना जौहरी की तरह अपने बेशक़ीमत जवाहिरात की नुमाइश से लोगों की आँखों में चकाचौंद ही पैदा करना चाही। नज़ानी नोव ग्राद का ये मामूली बाशिंदा अपने हुर्रियत पसंद अफ़्क़ार से रूसी अदब की अंधी शम्अ को ताबानी बख़्शने का आर्ज़ुमंद था। मुर्दा ज़र्द और बे-जान ढाँचों में हयात-ए-नौअ की तड़प पैदा करना चाहता था।

    मेक्सिम गोर्की का असली नाम एलेक्सी मेक्स मोवख़ पेशकोफ़ है। उसका बाप मेक्सिम पेशकोफ़ एक मामूली दुकानदार था जो बाद अज़ां अपनी उलूव-ए-हिम्मती और मेहनत-कशी से उस्तरा ख़ां में जहाज़ का एजेंट बन गया। उसने नज़ाेहनी नौव ग्रोद के एक रंग साज़ वसीली केशरन की लड़की से शादी की। जिसके बत्न से मेक्सिम गोर्की 14 मार्च 1869 ई. को पैदा हुआ। पैदाइश के फ़ौरन बाद ही बाप अपने बच्चे को उस्तरा ख़ां ले गया। यहां गोर्की ने अभी अपनी ज़िंदगी की पाँच बहारें देखी थीं कि बाप का साया उस के सर से उठ गया। अब गोर्की की माँ उसे फिर से उसके दादा के घर ले आई।

    गोर्की ने अपने बचपन के ज़माने की दास्तान अपनी एक तसनीफ़ में बयान की है। उसमें उसने अपने जाबिर दादा और रहम-दिल दादी के किरदारों की निहायत फ़नकारी से तस्वीर-कशी की है, जिसके नुक़ूश-क़ारी के ज़हन से कभी महव नहीं हो सकते। जूँ-जूँ कमसिन गोर्की बड़ा होता गया। उसके गर्द-ओ-पेश का अफ़लास-ज़दा माहौल तारीक से तारीक तर होता गया। उसकी माँ ने जैसा कि गोर्की लिखता है। ''एक नीम आक़िल शख़्स से शादी कर ली।''

    इस शख़्स के मुताल्लिक़ गोर्की की कोई अच्छी राय नहीं है।

    कुछ अर्से के बाद उसकी वालिदा भी उसे दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे गई और साथ ही उसके दादा ने उसे ख़ुद कमाने के लिए अपने घर से रुख़स्त कर दिया। क़रीबन दस साल तक नौजवान गोर्की रूस की सरहदों पर फ़िक्र-ए-मआश में मारा मारा फिरता रहा। कश्मकश ज़ीस्त के उस ज़माने में उसे ज़लील से ज़लील मशक़्क़त से आश्ना होना पड़ा।

    लड़कपन में उसने एक कफ़्श-दोज़ की शागिर्दी इख़्तियार कर ली। ये छोड़कर वो एक मुद्दत तक दरिया-ए-वोल्गा की एक दखानी कश्ती में खाना खिलाने पर नौकर रहा। जहां एक बूढ़े सिपाही ने उसे चंद इब्तिदाई किताबें पढ़ाईं और इस तरह उसकी अदबी ज़िंदगी का संग-ए-बुनियाद रखा।

    उन किताबों में से जो गोर्की ने तख़्ता जहाज़ पर बूढ़े सिपाही से पढ़ीं। एक किताब ''एडलफ़ो के इसरार'' थी, एक मुद्दत तक उसके ज़ेर-ए-मुताला ऐसी कुतुब रहें जिनके औराक़ अमूमन कुश्त-ओ-ख़ून और शुजाआना रूमानी दास्तानों से लबरेज़ हुआ करते थे, इस मुताला का असर उस की अवाइली तहरीरों में नुमायां तौर पर झलकता है।

    पंद्रह बरस की उम्र में गोर्की ने कज़ान के एक स्कूल में दाख़िल होने की कोशिश की, मगर जैसा कि वो ख़ुद कहता है। उन दिनों मुफ़्त तालीम देने का रिवाज नहीं था। वो अपने इस मक़सद में कामयाब ना हो सका बल्कि उसे भूकों मरने से बचाओ हासिल करने के लिए एक बिस्कुटों के कारख़ाने में काम करना पड़ा। ये वही कारख़ाना है जिसकी तस्वीर उसने अपने शाहकार अफ़साने ''छब्बीस मज़दूर और एक दोशीज़ा' मैं निहायत फ़नकारी से खींची है।

    काज़ान में उसे ऐसे तलबा से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ, जिन्होंने उसके दिमाग़ में इन्क़िलाबी ख़्यालात की तुख़्म-रेज़ी की। काज़ान को ख़ैरबाद कहने के बाद वो जुनूब-मशरिक़ और मशरिक़ी रूस के मैदानों में आवारा फिरता रहा। उस ज़माना में उसने हर नौईयत की मशक़्क़त से अपना पेट पाला। अक्सर औक़ात उसे कई कई रोज़ फ़ाक़े भी खींचने पड़े।

    1890 ई. में वो नज़हनी में रंगरूट भर्ती होने के लिए आया। ख़राब सेहत की बिना पर उसे ये मुलाज़मत तो ना मिल सकी मगर वो नज़हनी के एक वकील मिस्टर एम ए लेनिन के यहां मुंशी की हैसियत में नौकर हो गया। उस वकील ने उसकी तालीम की तरफ़ बहुत तवज्जो दी। थोड़े अरसा के बाद ही गोर्की के ज़हनी तलातुम ने उसे मजबूर कर दिया कि वो मुंशी-गिरी छोड़कर रूस की सरहदों पर आवारा फिरे... दरअसल क़ुदरत को ये मंज़ूर ना था कि मुस्तक़बिल क़रीब का अदीब इतने अर्से तक दुनिया की नज़रों से रुपोश रहे।

    ख़ाना-बदोशी की उस सियाहत के ज़माने में गोर्की ने अपना क़लम उठाया। 1892 ईं में जब कि वो तिफ़लिस के एक रेलवे वर्कशॉप।

    (1) गोर्की अपने उस मोहसिन का बहुत एहतिराम करता है, चुनांचे उसने अपने अफ़्सानों का एक मजमूआ मिस्टर एम ए लेनिन के नाम से मोअनवन किया है।

    (2) गोर्की के लफ़्ज़ी मअनी कड़वा या मलूल है।

    में मुलाज़िम था, उस का पहला अफ़साना ''माकारशदरा' जो एक निहायत दिलचस्प रूमानी दास्तान थी। मुक़ामी रोज़नामा ''क़फ़क़ाज़' में शाया हुआ। उस अफ़साने में उसने ख़ुद को अपने क़लमी नाम गोर्की से मुतआरिफ़ कराया। ये नाम अब हर फ़र्द-ए-बशर की ज़बान पर है।

    कुछ अरसा तक वो अपने सूबे के अख़बारों में मज़ामीन छपवाने के बाद इस काबिल हो गया कि अपनी तहरीरों से रुपया पैदा कर सके। मगर ''आला अदब'' के ऐवान में वो उस वक़्त दाख़िल हुआ, जब उसने दुबारा नज़हनी में इक़ामत इख़्तियार की।

    कौर लंकव, उन दिनों नज़हनी में था। उसने गोर्की का एक अफ़साना ''चलकाश' अपने असर-ओ-रुसूख़ से उस वक़्त के एक मौक़र मुजल्ला में शाया कराया। गो मेक्सिम गोर्की ने परावंशल प्रेस की क़लमी इआनत जारी रखी। मगर पीटरज़बर्ग के रसाइल भी उसके मज़ामीन शुक्रिया के साथ शाया करने लगे... 1895 ई. में उसके अफ़्सानों का पहला मजमूआ किताबी सूरत में शाया हुआ। उन अफ़्सानों को बहुत मक़बूलियत हासिल हुई। फ़िल-हक़ीक़त रूसी इंशापर्दाज़ के लिए इस किस्म की शानदार कामयाबी ग़ैर मस्बूक़ थी। इस किताब के तआरुफ़ के साथ ही गोर्की एक ग़ैर-मारूफ़ जर्नलिस्ट से मुल्क का मशहूर-तरीन इंशापर्दाज़ बन गया।

    गोर्की की शोहरत 'पहले इन्क़िलाब' तक क़ाबिल-ए-रश्क थी। मुल्क के तमाम अख़बार उस की तसावीर और उसके ज़िक्र से भरे होते थे। हर शख़्स उसके सरापा को एक नज़र देखना अपना फ़र्ज़ समझता था। बैन-उल-मिल्ली शोहरत भी फ़ौरन ही नौजवान मुसन्निफ़ की क़दम-बोसी करने लगी। जर्मनी बिल-ख़ुसूस उस पर लट्टू हो गया... 1903 ई. और 1906 ई. के दरमियान अरसा में गोर्की की शाहकार तमसील 'तारीक गहराइयाँ' बर्लिन के एक थियेटर में मुतवातिर पाँच सौ रातों तक स्टेज होती रही।

    पीटरज़बर्ग में गोर्की का बेशतर वक़्त मार्क्सियों की सोहबत में गुज़रा। जिसका नतीजा ये हुआ कि वो मार्क्सी बन गया और उसने अपनी दो तसानीफ़ ''वो तीनों'' और ''फूमा]' एक मार्क्सी मुजल्ला के सुपुर्द कर दीं। ये दोनों किताबें उस रिसाले में बिल-अक़्सात शाया हुईं। गोर्की के एक गीत की इशाअत की वजह से ये रिसाला हुकूमत ने ज़ब्त कर लिया। ये गीत आने वाले इन्क़िलाब की एक बे-नक़ाब तमसील थी।

    मेक्सिम गोर्की अब रूस की जम्हुरियत पसंद दुनिया की सबसे ज़्यादा अहम और मशहूर शख़्सियत थी। माली नुक़्ता-ए-नज़र से भी उसे बहुत एहमियत हासिल थी। उसकी तसानीफ़ का पैदा-कर्दा रुपया का बेशतर हिस्सा इन्क़िलाब की तहरीक में सर्फ होता रहा। ख़र्च का ये सिलसिला 1917 ई. के इख़्तेताम तक जारी रहा जिसका नतीजा ये था कि गोर्की अपनी किताबों की मक़बूलियत और हैरत-अफ़्ज़ा फ़रोख़्त के बावजूद अपनी मेहनत के समर से पूरी तरह हज़ ना उठा सका।

    1900 ई. में रूस की फ़िज़ा सख़्त मुज़्तरिब थी। गिरफ़्तारियों और सज़ाओं की भरमार थी, चुनांचे गोर्की गिरफ़्तार हुआ और उसे पीटरज़बर्ग से निकाल कर नज़हनी में नज़रबंद कर दिया गया।

    1902 ई. में उसे 'इम्पीरियल अकेडमी आफ़ साईंस' का एज़ाज़ी रुकन मुंतख़ब किया गया, मगर चूँकि नई एकैडमी पुलिस की ज़ेर-ए-नगीं थी इसलिए हुकूमत ने फ़ौरन ही इस इंतिख़ाब को रद्द कर दिया। इस पर कौर लंकव और चेख़ोफ़ सख़्त मुश्तइल हुए और एहतिजाज के तौर पर एकैडमी से अलैहदा हो गए।

    (1) वलादीमीर कौर लंकव, जुनूबी रूस में 1953 ई. में पैदा हुआ। रूस के दीगर अदबा की तरह वो हुसूल-ए-त'अलीम से सियासी वजह की बिना पर तिश्ना रहा। सियासी सरगर्मियों में हिस्सा लेने की वजह से उसे मास्को के ज़राअती स्कूल को ख़ैरबाद कहना पड़ा। उसे 6 साल का तवील अर्सा साइबेरिया के यख़-बस्ता मैदानों में काटना पड़ा। ज़माना असीरी के बाद वो मौज़ा नज़हनी में इक़ामत पज़ीर हुआ। जहां वो मुद्दत तक एक रिसाला की इदारत के फ़राइज़ सर-अंजाम देता रहा। इसी ज़माना में गोर्की से उसकी मुलाक़ात हुई। कौर लंकव रूसी अदब में ख़ास शोहरत रखता है।

    पहले इन्क़िलाब में गोर्की ने बड़ी सरगर्मी से हिस्सा लिया। जनवरी 1905 ई. में उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। इस गिरफ़्तारी ने अकनाफ़-ए-आलम में गोर्की के चाहने वाले पैदा कर दिए।

    रिहाई के बाद गोर्की ने एक रोज़ाना अख़बार शाया किया जिसके कालम बोल्शेविक तहरीक के नशव-ओ-इर्तिक़ा के लिए मख़सूस थे। उस रोज़नामे में गोर्की ने बीसवीं सदी के तमाम रूसी अदबा को बेहूदा क़रार देते हुए मक़ालों का एक तांता बांध दिया। इन इंशा-पर्दाज़ों में जो उसके नज़दीक फ़ुज़ूल थे। टालिस्टाई और दोस्तोवस्की भी शामिल थे, वो उन्हें अदना सरमायादार का नाम देता है।

    उस ज़माने में रूस के ग़ैर मुल्की कर्ज़ों की बहुत मुख़ालिफ़त हो रही थी। गोर्की ने उस तहरीक में बड़ी गर्म-जोशी से हिस्सा लिया और दिसंबर में मास्को की 'मुसल्लह बग़ावत' की हर मुम्किन तरीक़ पर मदद की।

    1906 ई में रूस छोड़कर वो अमरीका चला गया। उसका फिनलैंड और स्कैटनेविया का सफ़र एक पुर-शिकोह और ज़फ़र-मंद जुलूस की सूरत में था। अमरीका में उसका इस्तिक़बाल निहायत शानदार तरीक़े पर किया गया, मगर फ़ौरन ही वहां के लोगों को पता चल गया कि गोर्की जिस औरत के हमराह रहता है और जिसे अपनी मंकहा बीवी बताता है, फ़िल-हक़ीक़त उसकी बीवी नहीं। इस वाक़िया ने अमरीकियों के दिलों में उसके ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा कर दी। उसे होटल छोड़ देने के लिए कहा गया और एक दावत में जो उसके एज़ाज़ में दी जा रही थी। मार्क ट्वेन ने सदारत से इनकार कर दिया। क़ुदरती तौर पर गोर्की 'तहारत' के इस ग़ैर मुतवक़्क़े जज़्बे से सख़्त रंजीदा हुआ। जो एक रूसी के लिए ना-क़ाबिल-ए-फ़हम था। उस ज़हनी तकद्दुर ने उसे चंद अमरीकी अफ़साने सुपुर्द-ए-क़लम करने पर मजबूर किया। जो 1907 ई. में 'पीले भूतों का शहर' के मानी-ख़ेज़ उनवान से शाया होते रहे।

    योरोप वापिस आने पर वो ''कैप्री' में सुकूनत पज़ीर हुआ। जहां वो 'जंग' से कुछ अरसा पहले तक मुक़ीम रहा। यहां के लोगों में उसे बहुत हर-दिल अज़ीज़ी नसीब हुई।

    मेसीना की हौलनाक आफ़त के बाद रिलीफ़ के कामों में हिस्सा लेने की वजह से इटली, गोर्की का गर्वीदा हो गया। इसी अरसा में रूस के अदबी हलक़ों में उसकी शोहरत कम होने लगी। 'तारीक गहराइयोँ' के बाद की तसानीफ़ को वो मक़बूलियत हासिल ना हुई जो होनी चाहिए थी (रफ़्ता-रफ़्ता गोर्की जो 1900 ई. तक बड़ा हर दिल अज़ीज़ मुसन्निफ़ था, बोल्शेविक पार्टी का पिट्ठू बन कर रह गया।)

    (प्रिंस, डी ऐस मार्क्सी कोंटपरेरी रशियन लिट्रेचर)
    गो अदबी हलक़ों में उसकी शोहरत को उस तरह ज़वाल पहुंचा, मगर दूसरी तरफ़ उसके अफ़्कार रूसी मज़दूरों के दिल-ओ-दिमाग़ में घर करने लगे। रूसी मज़दूरों की वो ज़हनियत जो हमें 1917 ई. तक नज़र आती है। दरअसल गोर्की की तसानीफ़ की मरहून-ए-मिन्नत है। रूस वापिस आने पर उसने एक माहाना रिसाला जारी किया, मगर ये मक़बूल ना हुआ।

    जंग-ए-अज़ीम छिड़ने पर गोर्की ने बैन-उल-मिल्ली पोज़ीशन इख़्तियार कर ली। 1917 ई. में उसने अपने क़दीम दोस्तों यानी बोल्शेविकों की मदद की, मगर ये इमदाद ग़ैर मशरूत ना थी। गो उस का असर लेनिन और उसकी पालिसी के हक़ में था मगर उसने इस दफ़ा ख़ुद को पार्टी का तरफ़-दार ज़ाहिर ना किया। बल्कि ग़ैर जानिबदार और अमन पसंद रहने की कोशिश की, उसकी ये भारी भरकम बरतरी और मुशफ़िक़ मगर हर्फ़गीर अलैहदगी देर तक क़ायम रही।

    बोल्शेविकों ने इस रवैय्ये पर ज़रूरत से ज़्यादा सरगर्मी का इज़हार ना किया, लेकिन एक तरफ़ गोर्की के बोल्शेविक पार्टी के सर-कर्दा लीडरों से ज़ाती ताल्लुक़ात। दूसरी तरफ़ उस की बेरूनी शोहरत की फ़रवानी ने उसे एक आला हैसियत बख़शी... 

    1918 ई. से लेकर 1921 ई. 
    (1)अमरीका का मशहूर मज़ाह-निगार तक क़तई तौर पर सोवियत रूस में पब्लिक की आज़ाद क़ुव्वत सिर्फ़ गोर्की ही थी।

    गोर्की के ग़ैर जानिबदाराना रवैय्या को काबिल-ए-तहसीन क़रार ना दिया जाये, मगर ये तस्लीम करना पड़ता है कि उस हौलनाक ज़माना में उसकी सरगर्मियां क़ाबिल-ए-सद-आफ़रीन हैं, अगर वो इससे क़ब्ल अम्न-पसंद और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का हामी बनने का झूटा दावे कर रहा था तो उसने इस मर्तबा फ़िल-वाक़ेअ  अपने आपको ऐसा साबित कर दिखाया। रूसी तमद्दुन दर-हक़ीक़त गोर्की की इख़लास के शाना सरगर्मियों का शर्मिंदा एहसान है। 1918 ई. और 1921 ई. के दौरान में हर वो कोशिश जो रूसी इंशा-पर्दाज़ों और दीगर सहाफ़ियों को गुरुसनगी से बचाने के लिए अमल में लाई गई, सिर्फ़ गोर्की की तवज्जा का नतीजा थी। उसने इस ग़रज़ के लिए अपने सियासी दोस्तों की मदद से एक ऐसा मर्कज़ी इदारा क़ायम किया, जहां रूसी अदबा से ग़ैर मुल्की ज़बानों के तराजुम कराए जाते थे और इस तरह उन्हें पेट भर कर खाना नसीब हो जाता था।

    1919 ई. में गोर्की ने ''टालिस्टाई की याद की झलकियाँ' शाया की। इस तसनीफ़ से एक बार फिर ये ज़ाहिर हो गया कि वो फ़िल-वाक़ेअ आला पाए का मुसन्निफ़ है मगर इसके बावजूद वो अपनी पहली सी अज़मत दोबारा हासिल ना कर सका।

    1922 ई. में उसने रूसी किसानों पर एक ज़बरदस्त मक़ाला लिखा जिसमें उसने इस जमाअत को ग़ैरमामूली तुर्श अल्फ़ाज़ में मलामत करते हुए उसे हर बुराई का मस्कन क़रार दिया है। गोर्की इस जमाअत के अफ़राद को इसलिए भी मौरिद-ए-इल्ज़ाम ठहराता है कि उन्होंने क़ौमी तहज़ीब की तासीस में कोई हिस्सा ना लिया।

    1922 ई. के आख़िर में गोर्की ने रूस को ख़ैरबाद कह कर जर्मनी में सुकूनत इख़्तियार कर ली। उसकी सेहत जो पहले ही बहुत ख़राब थी और ज़्यादा ख़राब हो गई लेकिन इसके बावजूद उसने क़लम अपने हाथ से ना छोड़ा। वो एक रिसाले की इदारत के फ़राइज़ भी अंजाम देता रहा। जिसके ज़रिये वो साईंस की जदीद तरक़्क़ी को अपने मुल्क से रूशनास कराना चाहता है। गुज़श्ता चंद सालों से गोर्की के पेश-ए-नज़र सिर्फ यही चीज़ है इसलिए कि वो देखता है कि इब्तिदाई इल्म की नशर-ओ-इशाअत ही मुल्क की सबसे अहम ज़रूरत है।

    अख़बारी और महज़ सियासी तहरीरों को शामिल ना करते हुए हम गोर्की की बाक़ी तसानीफ़ तीन हिस्सों में तक़सीम कर सकते हैं,

    1. वो मुख़्तसर अफ़साने जो 1892 ई. और 1899 ई. के दरमियानी अरसा में सुपुर्द-ए-क़लम हुए और जिनकी वजह से उसे मक़बूलियत हासिल हुई।

    2. उसके मुआशरती नॉवेल और ड्रामे जो 1899 ई. और 1912 ई. की दरमियानी मुद्दत में लिखे गए हैं।

    3. 1913 ई. से लेकर उस वक़्त तक की तमाम तहरीरें जो ज़्यादातर सवानेह-ए-हयात और तज़किरों की शक्ल में हैं।

    गोर्की की तसानीफ़ का पहला और आख़री दौर दरमियानी ज़माने की तहरीरों की निस्बत ज़्यादा एहमियत रखता है। इन तहरीरों में हम उसकी तख़्लीक़ी क़ुव्वत एक हद तक ज़ईफ़ देखते हैं।

    गोर्की की अवाइली तसानीफ़ की हक़ीक़त निगारी में रूमानियत बदरजा उत्तम मौजूद है। रूमानियत का यही उंसुर रूस में उसकी मक़बूलियत का बाइस हुआ लेकिन इसके बर-अक्स ग़ैर ममालिक में उसकी शोहरत का बाइस उसकी हक़ीक़त-निगारी है।

    इसके पहले अफ़्सानों की ताज़गी रूसी क़ारी की नज़र में सिर्फ उसके जवान और बे-बाक अफ़्क़ार थे, लेकिन ग़ैर मुल्की क़ारी इस ख़ाम और सितम-कार अंदाज़-ए-बयान में ताज़गी महसूस करता था जिसके ज़रिये उसने अपनी दोज़ख़-नुमा दुनिया की तस्वीर-कशी की है।

    (कंटेम्परेरी रशियन नॉवेलिस्ट्स, सर्गपर्स्की।)
    इन सत्रों से हमें ''अवाइली गोर्की' के मुताल्लिक़ रूसी और ग़ैर रूसी क़ारी की पसंदीदगी के तक़ाबुल का बख़ूबी अंदाज़ा होता है। इस तज़ाद की वजह फ़िल-हक़ीक़त 'अक़बी मनाज़िर' का तख़ालुफ़ है। रूसियों ने उसके अफ़्क़ार को चेख़ोफ़ और 1880 ई. के दीगर इंशा-पर्दाज़ों के गिराए हुए मग़्मूम और यास आफ़रीन पर्दे पर देखा और ग़ैर मुल्कियों ने अहद-ए-विक्टोरिया की मुरव्वज-ओ-पुरसुकून हक़ीक़त निगारी के पर्दे पर।

    गोर्की के शुरू शुरू के अफ़साने बिलकुल रूमानियत में डूबे हुए हैं। इन अफ़्सानों में ''माकारशदरा' और रोज़ गुल... बूढा आदमी' के नाम काबिल-ए-ज़िक्र हैं।

    इन अफ़्सानों की रूमानियत नुमाइशी और थियेटरी है, लेकिन इसी रूमानियत ने चेख़ोफ़ से उचाट रूसी क़ारी की नज़र में गोर्की का रुत्बा पैदा किया। उसकी ये रूमानियत एक ऐसे फ़लसफ़े की शक्ल इख़्तियार कर गई। जिसे उसने बड़े ख़ाम और सादा अंदाज़ में अपनी एक कहानी में बयान किया है। इस कहानी का मतलब ये है कि वो दुरुग़ जो रूह को सरफ़राज़ी बख़्शे, बेहतर है उस सच्चाई से जो ज़िल्लत-आफ़रीन हो।

    1895 ई. में गोर्की ने दफ़्फ़ातन चोरों और जंगली इन्सानों की दास्तानें क़लम-बंद करना छोड़कर नया रुख़ बदला। अब उसने जो रविश इख़्तियार की, वो हक़ीक़त-निगारी की तशकील और रूमानियत का इज्तिमा था। उस का पहला अफ़साना ''चलकाश' जो बड़े प्रेस में शाया हुआ, बहुत कामयाब है। इस दास्तान का मौज़ू चलकाश नामी एक तुर्श-रू और निडर ख़ूफ़िया फ़रोश और उस नौजवान तामा लड़के का तक़ाबुल है जिसे चलकाश अपने ख़तरनाक और मुजरिमाना पेशे का शरीक बनाता है। इस कहानी का प्लाट निहायत सुलझा हुआ और दिलचस्प है चलकाश का किरदार काबिल-ए-तारीफ़ सफ़ाई और बेहतरीन फ़नकारी से पेश किया गया है। इसी किस्म के दो और अफ़साने 'मालवा' और 'मेरा हमसफ़र’ हैं।

    अव़्वल-उज़-ज़िक्र अफ़साने में मालवा औरत के भेस में दूसरा चलकाश है। मुअख्ख़र-उज़-ज़िक्र दास्तान किरदार-निगारी के नुक़्ता-ए-नज़र से ग़ैर-फ़ानी हैसियत रखती है। 'मेरा हमसफ़र’ में प्रिंस शाद को (जिसके हमराह दस्तान गवाडसिया से तिफ़लिस तक पैदल सफ़र करता है) का किरदार फ़िल-हक़ीक़त गोर्की की नादिर तख़लीक़ है।

    शार्को के किरदार में मिसालियत काश्मा भर मौजूद नहीं। गोया साफ़ ज़ाहिर है कि मुसन्निफ़ की सनाआना हमदर्दी सिर्फ उसी के हक़ में है।

    इन ख़ुसूसियतों में से जो गोर्की की शोहरत का बाइस हुईं, एक उसके नेचर को बयान करने का ख़ास अंदाज़ है। हम यहां मिसाल के तौर पर उसके अफ़्सानों में से चंद जुमले पेश करते हैं,

    ’’लंगरगाह के गर्द-ओ-ग़ुबार में जुनूबी आसमान गदला नज़र आता है। ताबां सूरज सुनहरी माइल समुंद्र को धुँदली निगाहों से देखता है, जैसे उसने ख़ाकिस्तरी नक़ाब ओढ़ रखी है। सूरज का अक्स समुंद्र की सतह पर चप्पूओं के थपेड़ों, ख़ानी कश्तियों और तुर्की जहाज़ों की नक़ल-ओ-हरकत की वजह से नहीं पड़ रहा, जो बंदरगाह पर हल चला रहे हैं यहां समुंद्र की आज़ाद लहरें संगीन दीवारों में क़ैद और उन भारी वज़नों के नीचे दबी हुई, जो उनके सीने को कुचलते हैं। झाग बन कर अपनी छाती कूटती हैं और शिकायत करती हैं।'

    अज़ चलकाश
    ’हमने अलाव रौशन किया और उसके क़रीब लेट गए। रात बहुत शानदार थी। गहरे सब्ज़ समुंद्र की लहरें नीचे चटानों से टकरा रही थीं। हमारे ऊपर नीलगूं आसमान की पुर-शिकोह ख़ामोशी छाई हुई थी। हमारे गिर्द-ओ-पेश इत्र-बेज़ दरख़्त थे। झाड़ियाँ बड़ी आहिस्तगी से झूम रही थीं। चांद बुलंद हो रहा था। जिसके साथ दरख़्तों के नाज़ुक सायों का झुरमुट पत्थरों पर रेंग रहा था। क़रीब ही कोई ख़ुश्गुलू परिंदा राग अलापने में मसरूफ़ था। उसकी नुक़रई आवाज़ फ़िज़ा में जो लहरों के थपेड़ों की धीमी और दिल-नवाज़ सदा से मामूर थी, आहिस्ता-आहिस्ता हल होती मालूम होती थी... आग तेज़ी से जलने लगी। अलाव से शोले सुर्ख़ और ज़र्द फूलों का एक गुलदस्ता नज़र आते थे। काँपते हुए साय हमारे आस-पास रक़्स कर रहे थे।'

    अज़ 'मेरा हमसफ़र'
    ’मौसम-ए-बहार के सूरज की किरनें बादलों से छन छन कर पानी की सतह पर ज़र-निगारी का काम कर रही थीं। हवा का झोंका आने पर नेचर इंतिहाई मुसर्रत में मुस्कुरा दी। बादलों में छिपा हुआ नीलगूं आसमां भी मुस्कुरा रहा था। बादलों का गिरोह जो फ़िज़ा में ग़ैर मुतहर्रिक लटक रहा था, चमकीले पानी के ऊपर किसी गहरी सोच में ग़र्क़ था गोया वो आतिश-ए-सूरज से बचने के लिए कोई रास्ता तलाश कर रहा था। इस शोख़ रंग और पुर-अज़-मसर्रत सूरज से जो तूफ़ान के इन निशानों का दुश्मन है।'

    अज़ क्लक पर
    गोर्की के बेशतर अफ़्सानों में इस क़िस्म की तफ़सीलात आम हैं। उसकी तहरीरों में लहरें और नीलगूं आसमान की पुर-असरार और पुर-शिकोह ख़ामोशी का ज़िक्र ज़रूर होता है। चेख़ोफ़ गोर्की की अज़मत-ओ-ज़कावत का क़ाइल था, मगर उसकी नज़रों में ये इआदा ग़ैर सना-आया था। चुनांचे वो गोर्की को एक खत में लिखता है। 'मालवा' का इफ़्तिताहिया जुमला जो सिर्फ दो लफ़्ज़ों यानी समुंद्र हंस रहा था' पर मुश्तमिल है। उसके तर्ज़-ए-बयान की मख़सूस मिसाल है।

    1897 ई में गोर्की की हक़ीक़त-निगारी उसकी रूमानियत पर ग़ालिब आ गई। ''जो कभी इन्सान थे' इस पर शाहिद है।

    ’’इस अफ़साने और हर उस अफ़साने में जो गोर्की ने 1897 ई. के बाद क़लम-बंद किया, एक ऐसी ख़ुसूसियत नुमायां तौर पर ज़ाहिर है जो उसकी अदबी शोहरत के ज़वाल का बाइस है। ये ख़ुसूसियत 'फ़लसफ़ियाना गुफ़्तगूओं' से हद से ज़्यादा बढ़ा हुआ प्यार है। जब तक उसने इस उंसुर से परहेज़ किया, वो अपनी तामीरी क़ुव्वत का सबूत देता रहा, जो दीगर अफ़साना-निगारों में बहुत कम मिलती है।

    गोर्की का वो अफ़साना जो उसके इन तमाम अदबी ओयूब पर पर्दा डाल देता है। ''छब्बीस मज़दूर और एक दोशीज़ा है' जो उसने 1899 ई. में लिखा।'

    (प्रिंस डी एस मेर्स्की)
    इस अफ़साने का इफ़्तिताही मंज़र बिस्कुट बनाने का एक तंग-ओ-तार कारख़ाना है, जहां छब्बीस मज़दूर रोज़ाना चौदह घंटे लगातार मशक़्क़त करते हैं। गोर्की इस अफ़साने को अपने मख़सूस अंदाज़ में इस तरह शुरू करता है,

    हम तादाद में छब्बीस थे। छब्बीस मुतहर्रिक मशीनें। एक मर्तुब कोठड़ी में मुक़य्यद। जहां हम सुबह से लेकर शाम तक बिस्कुटों के लिए मैदा तैयार करते।

    हमारी ज़िंदाँ-नुमा कोठड़ी की खिड़कियाँ, जिनका निस्फ़ हिस्सा आहनी चादर से ढका था और शीशे गर्द-ओ-ग़ुबार से अटे हुए थे। ईंटों और कूड़े कर्कट से भरी हुई खाई की तरफ़ खुलती थी। इसलिए सूरज की शुआएं हम तक ना पहुंच सकती थीं।

    हमारे आक़ा ने खिड़कियों का निस्फ़ हिस्सा इसलिए बंद करा दिया था कि हमारे हाथ उसकी रोटी से एक लुक़मा भी ग़रीबों को देने के लिए बाहर ना निकल सकें या हम उन भाइयों की मदद ना कर सकें जो काम की क़िल्लत की वजह से फ़ाक़ाकशी कर रहे थे।

    (1) चेख़ोफ़ ने भी गोर्की की इस ख़ुसूसियत का तज़किरा अपने एक ख़त में किया है जो उसने गोर्की को लिखा था,

    इस संगीन ज़िंदान की छत तले जो धुएं की सियाही और लकड़ी के जाले से अटी हुई थी, हम निहायत तकलीफ़-देह ज़िंदगी बसर कर रहे थे। इस चार-दीवारी में जो कीचड़ और मैदे के ख़मीर से भरी हुई थी, हमारी ज़िंदगी ग़म-ओ-फ़िक्र की ज़िंदगी थी।'

    (इस अफ़साने के मुताल्लिक़ कुछ और लिखने से पेशतर हम गोर्की के पेश-कर्दा किरदारों पर मुख़्तसर तबसरा करना चाहते हैं।) गोर्की की अपनी बेशतर तसानीफ़ में मज़दूरों और ग़ुर्बत-ज़दा किसानों को इन्सान की सूरत में पेश नहीं करता''। ये चीज़ योरोपी ज़हन के लिए जो ख़ुशगवार माहौल का आदी है, नई और अजीब हैसियत रखती हो तो कोई अचम्भा नहीं है, मगर हिन्दुस्तान और रूस के उस ज़माने की फ़िज़ा से सदगुना मुमासिलत रखता है, उन किरदारों को जो भी इन्सान थे ब-ख़ूबी समझता है।

    जब गोर्की ''छब्बीस मुतहर्रिक मशीनें' लिखता है तो हमें ताज्जुब नहीं होता। हम फ़ौरन समझ लेते हैं कि ये लफ़्ज़ नाकामी, हुज़्न-ओ-मलाल और तारीक ज़िंदगी का मुताला पेश कर रहे हैं। गोर्की इन्सान को इस शक्ल में पेश-ए-नज़र रखता है जैसा कि वो है। उसके किरदार भूक को ''मआशी दबाओ' नहीं कहते। वो उसे सिर्फ भूक कहते हैं। वो उमराओं को 'सरमाया दाराना अनासिर का इज्तिमा' नहीं कहेंगे। वो उन्हें सिर्फ 'उमरा’ का नाम देंगे।

    गोर्की की ये सादा-बयानी और साफ़-गोई उसकी तमाम तसानीफ़ में मौजूद है। ''छब्बीस मुतहर्रिक मशीनें' लिखते वक़्त ग़ालिबन गोर्की के पेश-ए-नज़र ये था कि वो निहायत सादा और मुख़्तसर अलफ़ाज़ में उन मज़लूम मज़दूरों की सही तस्वीर नाज़िर के सामने पेश करे और ये हक़ीक़त है कि ''छब्बीस मुतहर्रिक मशीनें' पढ़ते वक़्त उन मज़दूरों की ला-मुतनाही मेहनत-ओ-मशक़्क़त और बेबसी की एक साफ़ तस्वीर खिंच जाती है।

    इस अफ़साने में छब्बीस ज़िश्त-रू ग़लीज़ मज़दूरों की एक दास्तान बयान की गई है। ये सब एक हसीन लड़की टीनिया की मुहब्बत में गिरफ़्तार हैं। जो हर-रोज़ उनसे बिस्कुट लेने के लिए आती है। उस लड़की का मासूम हुस्न ही एक ऐसी शुआ है, जिससे उनकी तारीक ज़िंदगी आश्ना है।

    उन लोगों को जो सब के सब ग़लीज़ और उनमें से अक्सर मरीज़ हैं, सिर्फ एक चीज़ मुंसलिक किए होती है। यानी टीनिया से उनकी जज़्बाती मुहब्बत, गोर्की बड़े साफ़ अंदाज़ में उनकी इस इज्तिमाई मुहब्बत की तशरीह करता है,

    ’’हम सिनफ़ नाज़ुक के मुताल्लिक़ ऐसे अलफ़ाज़ में गुफ़्तगू किया करते थे कि बाज़-औक़ात हमारी गुफ़्तगू नागवार हो जाया करती थी। इससे ये नतीजा अख़्ज़ ना किया जाये कि हमारे ख़्यालात औरतों के मुताल्लिक़ बहुत बुरे थे बल्कि वो सिनफ़ जिसके मुताल्लिक़ हम इज़हार ख़्यालात करते थे, औरत कहलाने की मुस्तहिक़ ही नहीं, मगर टीनिया की शान में हमारे मुँह से कभी गुस्ताख कलमा निकलने ना पाता। शायद उसकी वजह ये हो कि वो हमारे पास बहुत कम ठहरती थी। वो आसमान से टूटे हुए तारे की तरह रौशनी दिखला कर हमारी नज़रों से ओझल हो जाया करती थी या इसकी वजह उसका हुस्न हो। क्योंकि हर हसीन चीज़ इन्सान के दिल में अपनी वक़अत पैदा कर देती है। ख़्वाह इन्सान ग़ैर-तर्बियत याफता ही क्यों ना हो।

    इसके अलावा एक और भी वजह थी। गवज़ निदान ने हम सबको वहशी दरिंदों से बदतर बना दिया था मगर हम फिर भी इन्सान थे और बनी-नौअ-ए-इन्सान की तरह हम भी किसी की परस्तिश किए बग़ैर ज़िंदा ना रह सकते थे। हमारे लिए उस की ज़ात से बढ़कर दुनिया में और कोई शैय ना थी। इसलिए कि बीसियों इन्सानों में जो उस इमारत में रहते, एक सिर्फ वही थी जो हमारी परवाह किया करती थी। सबसे बड़ी वजह ये थी।

    हर-रोज़ उसके लिए बिस्कुट मुहैय्या करना हम अपना फ़र्ज़ समझते थे। ये एक नज़राना होता जो हम हर-रोज़ अपने देवता की क़ुर्बान-गाह पर चढ़ाते थे। आहिस्ता-आहिस्ता ये रस्म एक मुक़द्दस फ़र्ज़ हो गई। जिसके साथ हमारा और उसका रिश्ता भी बाहम मज़बूत हो गया। हम टीनिया को नसीहतें भी किया करते। यही कि वो सर्दी में गर्म कपड़े इस्तिमाल किया करे और सीढ़ियों पर से एहतियात के साथ गुज़रा करे।

    मुंदरजा बाला सत्रों से मज़दूरों के किरदार का बचपन नुमायां तौर पर ज़ाहिर है उस बचपन से गोर्की को ये वाज़ेह करना मक़सूद था कि छब्बीस ग़ैर-तर्बियत याफता मज़दूर किस ग़ैरमामूली इख़लास और सादगी से टीनिया की मुहब्बत में गिरफ़्तार थे। दर असल उन मज़दूरों को अपनी तारीक ज़िंदगी में सिर्फ एक ही शुआ नज़र आई जिसका दामन उन्होंने पकड़ लिया। गोया लोग ग़लीज़ वहशी जाहिल और ग़ैर तर्बियत याफता हैं, लेकिन बईं-हमा उनके खुरदुरे क़ुलूब पर टीनिया का वजूद पूरा असर करता है, जिसे वो हक़ीक़ी हुस्न तसव्वुर करते हैं।

    ये लोग ख़ुद अपनी ग़ुर्बत और पुर अज़ मसाइब ज़िंदगी के ज़िम्मेदार हो सकते हैं, मगर ये उनका क़सूर नहीं कि वो मज़हब और आईडियल नहीं रखते। वो उम्मीद और ख़्वाहिश ज़िंदगी से ना-आशना हैं।

    ’’रूसी मजलिसी दायरे में आरा-ओ-अफ़्क़ार की ना उस्तुवारी का वुजूद' जैसा कि गोर्की ख़ुद कहता है। ''मिसालियत से ग़फ़लत बरतने का नतीजा है''

    टीनिया छब्बीस मज़दूरों की नज़र में एक फ़रिश्ता है। उसकी इस्मत पाकीज़गी और नेकी ना सिर्फ उनकी गुफ़्तगूओं का मौज़ू होती है। बल्कि वो उन मज़दूरों की ज़िंदगी को नए मआनी बख़्शती है।

    बड़े ड्रामाई और बे-रहम अंदाज़ में गोर्की अपने पेश-ए-नज़र मक़सद को रफ़्ता-रफ़्ता ज़ाहिर करता है। छब्बीस पुजारी अपनी देवी की इस्मत का इम्तिहान लेते हैं।

    एक सिपाही जो उस कारख़ाने में उनकी ब-निस्बत अच्छे काम पर नौकर है। उनसे दावे के साथ कहता है कि वो टीनिया को हत्थे चढ़ा लेगा। मज़दूर सिपाही से शर्त तो लगा बैठते हैं, मगर वो एक बे-क़रारी मोल ले लेते है,

    ’’अब हमें मालूम हुआ कि हम शैतान से बाज़ी लगा रहे हैं। जब हमने केक बनाने वाले से सुना कि सिपाही ने टीनिया का पीछा करना शुरू कर दिया है तो हमें सख़्त रंज पहुंचा। हम इस रंज को मिटाने के लिए इस क़दर मह्व थे कि हमें ये मालूम तक ना हुआ कि आक़ा ने हमारी बेचैनी और इज़्तिराब से फ़ायदा उठा कर मैदे में तीस सैर का इज़ाफ़ा कर दिया है।'

    वो हद दर्जा मुज़्तरिब और इस बात पर मुतास्सिफ़ थे कि उन्होंने ख़्वाह-मख़ाह टीनिया की इस्मत का इम्तिहान करना चाहा है, लेकिन ब-हमा वो उस रोज़ के मुंतज़िर थे। जब उन्हें ये मालूम हो जाने वाला था कि वो बर्तन जिसमें उन्होंने अपने दिल रखे हुए हैं, कितना साफ़ और बे-लौस है।

    बद-क़िस्मती से टीनिया बा-इस्मत साबित नहीं होती और वो सिपाही के हत्थे चढ़ जाती है। ये दास्तान ख़ुशगवार नहीं है, लेकिन गोर्की के क़लम ने उसे इस ग़ैर जानिबदाराना तफ़सील से बयान किया है कि ये हौलनाक हक़ीक़त मालूम होती है।

    ’’छब्बीस मज़दूर और एक दोशीज़ा' शेअरियत की इस क़दर ज़ोरदार रू से लबरेज़ है। इसमें आज़ादी और हुस्न का इतना मोअतदिल ईमान-ओ-यक़ीन है। इसके अलावा ये दास्तान इस क़दर सेहत-ए-फ़नकारी से बयान की गई है कि हम उसे गोर्की का शाहकार तस्लीम किए बग़ैर नहीं रह सकते। ये अफ़साना उसे बिला शक-ओ-शुबहा हमारे बुलंद मर्तबत क्लासिकस की सफ़-ए-अव्वलीन में जगह दिलवाता है''

    (प्रिंस डी एस मेर्स्की)
    उसका महबूब, जिसमें छब्बीस मज़दूर और एक दोशीज़ा की रूह कार-फ़रमा है। ये अदब का एक दरख़्शां टुकड़ा है जो शेअरियत मौज़ूं की रिफ़अत, तख़य्युल और सनअत-ए-सही के नुक़्ता-ए-नज़र से अपनी क़िस्म का वाहिद इज़ाफ़ा है। इसमें बद-शक्ल लड़की के ख़्याली महबूब की तख़लीक़ वाक़िअतन नादिर और शानदार है।

    (1) एक अंग्रेज़ नक़्क़ाद ने गोर्की पर नक़द-ओ-तबसरा करते वक़्त ये कहा है,

    गोर्की अपने अफ़्सानों में इरादतन सोसाइटी के पाए तबक़े को ज़ेर-ए-क़लम रखता है। उसके किरदार बिल-उमूम अपने मक़ासिद में नाकाम रहते हैं। उसकी तमाम तर वजह ये है कि उस ज़माने में जब वो एक आवारा ज़िंदगी बसर कर रहा था, उसे उसी क़िस्म के वाक़ियात से दोचार होना पड़ा था।

    उसके अफ़्सानों का मुताला करते वक़्त हमें ये चीज़ हरगिज़ फ़रामोश ना करनी चाहिए कि गोर्की की परवरिश आग़ोश-ए-ग़ुर्बत में हुई और ये कि उसे पेट पालने की ख़ातिर एक तवील मुद्दत तक ज़लील से ज़लील मशक़्क़त करनी पड़ी।

    उस शख़्स के ब-रब्त-ए-फ़िक्र से जिसने अपनी ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा एक तारीक फ़िज़ा में और ग़ैर तर्बियत याफता दुरुश्त मज़दूरों में बसर किया। किस क़िस्म के नग़मे बुलंद हो सकते हैं। गोर्की हमें वही कुछ पेश करता है जो उसके हस्सास दिल ने महसूस किया और जो उसकी चश्म-ए-फ़िक्र ने मुशाहिदा किया। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि उसका अंदाज़-ए-बयान निहायत बेबाक और ''ज़ालिमाना' है।

    जिस तरह बाइरन का तरन्नुम ग़ैर सनाआना आतिशीं और आज़ाद है। ठीक उसी तरह गोर्की की आवाज़ बुलंद-ओ-दीवानावार और बे-लगाम है। जब वो बरहना पा व गुरुस्ना शिकम लोगों का गीत अलापता है जो अपनी काहिली पर नाज़ाँ हैं, जो मुफ़लिस तो हैं मगर निडर, जो अपनी पुर अज़ मसाइब ज़िंदगी से ख़ुश हैं, गो मसर्रत के वक़्त मग़्मूम।

    गोर्की की सदा चेख़ोफ़ की शाइस्ता नर्म-ओ-नाज़ुक और मंझी हुई आवाज़ नहीं, ना वो मुअल्लिम-ए-अख़लाक़ टालिस्टाई की कमज़ोर ज़ाहिदाना सदा है। वो चिंघाड़ते हुए शेर की गरज है। चमकती हुई बिजली की कड़क है।

    इब्तिदाई क़ुव्वत में ये आवाज़ किसी ऐसे हस्सास इन्सान के दिल में उतर जाने वाली चीख़ है जिसने ज़िंदगी के मसाइब-ओ-आलम सह कर वहीं दुनिया के मुँह पर निहायत बे-परवाई से क़ै कर दी हो।

    वो दुनिया जो गोर्की अपने अफ़साने में पेश करता है, हमारी देखी भाली नहीं है और वो किरदार जो उसके अफ़्सानों के मुहर्रिक हैं, हम उनसे ना-आशना हैं, मगर इसके बावजूद कि हम उस सरज़मीन के जुग़राफ़ियाई हालात के सिवा कुछ नहीं जानते। गोर्की हमें उन गहराइयों तक ले जाता है और रूसी ज़िंदगी की एक ऐसी क़लमी तस्वीर हमारी आँखों के सामने खींच देता है, जिससे उकसी तसावीर आजिज़ हैं।

    गोर्की के अफ़्सानों के किरदार अमूमन किसान या मज़दूर जमाअत से मुताल्लिक़ होते हैं।

    ’’वो ऐसे नाकारा इन्सान हैं जो दुनिया की शाहराहों पर भटक रहे हों। उनके ज़हन ग़ुलामों जैसे ज़हन हैं। किसी आक़ा या ज़िंदगी के ऐसे क़ानून की तलाश जिसकी वो आँखें बंद किए इताअत कर सकें, उनका वाहिद मुंतहा मक़सद होता है। उनमें तशख़्ख़ुस और कैरेक्टर की उस्तुवारी का फ़ुक़दान है, अगर उनमें एलिया लेवनीफ़ जैसी होशमंदी और ज़हानत और अपनी कोशिशों से अपनी हालत को बेहतर बनाने की सलाहियत है तो उनमें निज़ाम-ए-ख़ुदा का उंसुर बहुत क़लील मिक़दार में होता है जो अंजाम-ए-कार उनकी ज़िंदगी को मग़्मूम बना देता है। इन तमाम उमूर के होते हुए उनका ख़ालिक़ यानी गोर्की उन पर एक ग़ैर-मामूली एतिक़ाद रखता है।'

    ’’मिस गुरु स्कॉट'
    गोर्की के परवर्द-ए-ग़ुर्बत हीरो ''तशख़्ख़ुस' से बेगाना हों। वो ज़िंदगी की शाहराहों पर भटके हुए नाकारा इन्सान हों, मगर उनमें एक नुमायां ख़ुसूसियत ज़रूर है, जिसकी मिसाल रूसी अदब में और कहीं नहीं मिलती। वो दोस्तोवस्की और तुर्गनेव के पेश करदा किरदारों।

    (1) थ्री मैन का हीरो

    की तरह अपनी तीरा-बख़्ती का गिला नहीं करते। ''रूसी हीरो' गोर्की अपने किसी अफ़साने में लिखता है। हमेशा जाहिल और सादा-लौह होता है। वो हमेशा किसी ऐसी चीज़ को समझने की कोशिश करता है जिसको वो समझ नहीं सकता। वो हमेशा मलूल रहता है।'

    उन लोगों की ज़िंदगी जिहालत का मुरक़्क़ा है। उन्होंने गु़लामी की फ़िज़ा में परवरिश पाई है लेकिन वो यक़ीनन आज़ादी की लज़्ज़त महसूस करते हैं।

    ’’मुझे अपनी बे-ख़ानमाँ और आवारा ज़िंदगी पसंद है। बेशतर औक़ात सर्दी ने मेरी रगों में ख़ून मुंजमिद किया है। मैंने फ़ाक़े खींचे हैं, लेकिन आज़ादी अज़ीमुश्शान है।' ये हैं वो लफ़्ज़ जो हम गोर्की के एक किरदार के मुँह से सुनते हैं।

    दिहात और शहर की पुर-सुकून ज़िंदगी उन्हें एक आँख नहीं भाती। गोर्की के तक़रीबन हर अफ़साने में हम उसके ''ख़ाना बदोश और हुर्रियत पसंद किरदार' को किसी आईडियल का दामन थामे देखते हैं। ये ख़ुसूसियत बिला-शुबहा गोर्की का अपना अक्स है।

    उसके किरदार अमूमन सोसाइटी के मस्नूई निज़ाम से रिहाई हासिल कर के नेचर के वसीअ कारख़ाने में भाग आते हैं। जहां उन्हें सुकून-ए-क़ल्ब और इत्मिनान ख़ातिर नसीब होता है। ग़ालिबन यही वजह है कि हम नेचर को उसके अफ़्क़ार के दोश बदोश और उसके किरदारों की इन्सानी हिसिय्यात में मौजूद देखते हैं।

    इन्सान और नेचर में सूफियाना क़ुर्बत गोर्की की हर तसनीफ़ में बदरजा अतम मौजूद है, अगर हम फ़र्दन फ़र्दन उसके हर अफ़साने और हर नॉवेल से इस उंसुर की मिसालें पेश करना चाहें तो उसके लिए यक़ीनन एक अलैहदा मुफ़स्सल मक़ाले की ज़रूरत होगी। तवालत के ख़ौफ़ से हम सिर्फ चंद मिसालों पर इक्तिफ़ा करेंगे।

    ’’मालवा' नामी अफ़साने में हम एक ऐसी लड़की देखते हैं जो ज़िंदगी से ना सिर्फ नफ़रत का इज़हार करती है बल्कि उससे सख़्त उकता गई है। वो नेचर के दाम उल्फ़त में गिरफ़्तार है। वो तमाम मर्द जो उससे मिलते हैं उसकी दिलचस्पी का सामान मुहैय्या नहीं कर सकते।

    इस अफ़साने का एक किरदार इन अल्फ़ाज़ में शहरी ज़िंदगी से अपनी इंतिहाई नफ़रत का इज़हार करता हैः

    ’लोगों ने शहर और घर तामीर कर रखे हैं। उनमें भेड़ों के गल्ले की तरह बसर-ए-औक़ात करते हैं। ज़मीन को पलीद करते हैं, हब्स-ए-दम हो रहे हैं... एक दूसरे को दबा रहे हैं... अजीब मज़हका-ख़ेज़ ज़िंदगी है!'

    ’मैदानों में' नामी अफ़साने में गोर्की का ख़ाना-बदोश किरदार रात के वक़्त ज़मीन पर लेटा अपने दोस्त से ये कहता है,

    ’ये ज़िंदगी ख़्वाह फ़ाक़ों से लबरेज़ है... मगर आज़ाद है... अपने आक़ा ख़ुद आप हो... अगर अपना सर भी काटना चाहो तो कोई रोकने वाला नहीं... इन दिनों फ़ाक़ा-कशी ने मुझे सरकश बना दिया था... मगर मैं अब यहां लेटा आसमान की तरफ़ देख रहा हूँ... सितारे मेरी तरफ़ देख देख आँखें झपक रहे हैं... मालूम होता है। वो मुझसे कह रहे हैं। कैप्टन कुछ फ़िक्र ना करो। जाओ दुनिया की सियाहत करो, मगर देखो किसी की गु़लामी क़बूल ना करना... दिल किस क़दर मसरूर है!'

    गोर्की के ख़ाना बदोश किरदार बा-इख़्लास और बेरिया होते हैं। वो ज़बान से वही निकालते हैं जिसे वो अपने दिल में महसूस करते हैं। उनमें तहज़ीब याफता अफ़राद की बिना वित्त और मुदाहिनत नहीं होती। वो ज़िंदगी को उस शक्ल में देखने के आदी करते हैं। जैसी वो अस्लन होती है। बाज़-औक़ात वो ज़ुल्म करने पर भी उतर आते हैं। कभी-कभार।

    एक और अफ़साने में हम सोसाइटी का एक ऐसा किरदार देखते हैं जो किसी ताजिर को कत्ल करने जा रहा है। वो अपनी आँखों से एक लड़की को दरिया में डूबते देखता है मगर उसे सिर्फ इसलिए नहीं बचाता कि उसे ताजिर को क़त्ल करना होता है।

    इसके बर-अक्स चलकाश आदी चोर शराबी और आवारा मिज़ाज अपने साथी गोरीला से जो एक कमज़ोर दिल देहाती है। निहायत रहम-दिली और फ़य्याज़ी का सबूत पेश करता है। उसे वो तमाम रुपया दे देता है जो उसने चोरी से पैदा किया होता है।

    हम गोर्की के अफ़सानवी किरदार की नौईय्यत पर मुख़्तसर तबसरा कर चुके हैं। आगे चल कर हम उस के तवील अफ़्सानों (नाविलों) के किरदारों पर इस रोशनी में तबसरा करेंगे। गुज़श्ता औराक़ में हम बयान कर चुके हैं कि गोर्की ने फ़लसफ़ियाना गुफ़्तगूओं को अपने अफ़्सानों में दाख़िल करना शुरू कर दिया जिससे उस की अदबी शोहरत कम होने लगी।

    1897 ई. में में उसने एक अफ़साना बा-उनवान 'शरीर लड़की' सुपुर्द-ए-क़लम किया। उसमें उसने तालीम याफ़ता लोगों की अक्कासी करना चाही, मगर इसमें नाकाम रहा।

    हमें गोर्की के 'तज़किरे' से मालूम होता है कि उसे सिर्फ ऐसा इंशा-पर्दाज़ बनना ना-पसंद था जिसका ख़मीर तबक़ा अदनी से उठाया गया। वो फ़िल-हक़ीक़त लीडर और मुअल्लिम की हैसियत में ख़ुद को पेश करना चाहता था। इस ख़्वाहिश की झलकियाँ इन ड्रामों और नॉविलों में साफ़ तौर पर नुमायां हैं जो उसने 1899 ई. के दरमियानी ज़माने में तसनीफ़ किए। इस ज़माने के काबिल-ए-ज़िक्र नॉवेल ये हैं।

    1. फूमा गोर्ड योफ़ 2. वो तीनों
    3. माता 4. एक

    ’फूमा गोर्ड योफ़' अज़ीमुश्शान तसनीफ़ है। इसमें ना सिर्फ रूस की तमाम पहनाइयां मर्कूज़ हैं बल्कि वुसअत-ए-ज़िंदगी भी मस्तूर है।

    जिस तरह कारख़ानों और मंडियों की इस दुनिया में और अबूर-ओ-मुरूर और तिजारत के इस ज़माना में हर जगह ग़ज़बनाक लोग उठे हैं जो साज़-ए-हयात के तारों में उसकी सही तड़प की जुस्तजू करते हैं और ज़िंदगी की हक़ीक़ी तपिश से आश्ना होना चाहते हैं, ठीक इसी तरह 'फूमा गोर्ड योफ़' रूस की सुर्ख़ फ़िज़ा में उभरता है और इसी सवाल का जवाब चाहता है।

    इस किताब में रूसी तज्ज़िया ख़ुदी और दकी़क़-उन-नज़री गोर्की ही की पैदा-कर्दा है। अपने दीगर रूसी भाइयों की तरह उसके अफ़्क़ार भी ग़ैरत-मंद और पुर-अज़-जोश एहतिजाज के हामिल हैं, मगर इस एहतिजाज से एक मक़सद वाबस्ता है। वो सिर्फ़ इसलिए अपना क़लम उठाता है कि उसे गोश-ए-इन्सानियत तक कुछ पहुंचाना मक़सूद है... उसके मुज़्तरिब ब-रब्त-ए-फ़िक्र से नर्म-ओ-नाज़ुक रागनियाँ बुलंद नहीं होतीं। वो अपने साज़ से सिर्फ हक़ीक़त का नग़्मा निकालता है... दिल-सोज़, ख़ौफ़नाक और बे-बाक।

    ये ग़लती होगी अगर हम ख़याल करें कि उमरा की जमाअत इस 'ख़ौफ़-ज़दा इन्सान' फूमा गोर्ड योफ़ को समझने की सलाहियत रखती है... उनकी मोटी खालों पर गोर्ड योफ़ की चुभोइ हुई सुइयां कुछ असर नहीं कर सकतीं।

    उन्हें ये अम्र निहायत ताज्जुब-ख़ेज़ मालूम होगा कि फूमा गोर्ड योफ़ ने जिसे दौलत की फ़रावानी और सेहत की ताज़गी मुयस्सर थी, अपने हम-इक़्तिदार लोगों की तरह ज़िंदगी बसर करना क्यों पसंद ना किया... उन लोगों की तरह जो अपने वक़्त का बेशतर हिस्सा कुर्सियों के साथ चिपक कर, तबादले के बदलते हुए सौदों की धुन में मस्त और अपने हरीफ़ हम-पेशा ताजिरों को कुचल डालने की तदाबीर सोचने में मह्व रहते हैं।

    फूमा गोर्ड योफ़ इसी क़िस्म के एक ताजिर का लड़का है मगर उसमें बेदारी आफ़त की चिंगारी पैदा हो जाती है। वो अपने गिर्द-ओ-पेश की दुनिया से जो तिजारत की हाव-हो से पुर होती है, सख़्त मुतनफ़्फ़िर हो जाता है।

    ’आह' फूमा निहायत गुस्ताख़ लहजे में दरयाफ़्त करता है, अगर ज़रपरस्ती के इन तमाम बरसों का अंजाम मर जाना और फ़ना हो जाना है तो फ़रमाइए सीम-ओ-ज़र की इस हवस से फ़ायदा?'

    जिस सरमाया-दार से फूमा ने ये गुस्ताख़ाना' सवाल किया, वो उसे समझने से क़ासिर था। ख़ुद मयाकन (फूमा का रुहानी बाप) भी अपने रुहानी बेटे को ना समझ सका।

    ’आप फ़ख़्र क्यों करते हैं''। एक रोज़ फूमा, मयाकन पर बरस पड़ता है। आख़िर आप इत्रा किस चीज़ पर रहे हैं...? आपका लड़का बताइए वो कहाँ है...? आपकी लड़की, फ़रमाइए वो क्या हुई...?' ज़िंदगी के नाज़िम साहब, माना कि आप चालाक हैं। आपके इल्म में सभी कुछ है, मगर ज़रा ये तो बताइए, आप किस लिए जीते हैं? रुपया क्यों इकट्ठा करते हैं...? क्या आपको मरना नहीं है...? तो फिर मयाकन के पास इन तमाम सवालों का जवाब नहीं होता, मगर वो फिर भी अपनी हट पर क़ायम रहता है।

    फूमा गोर्ड योफ़ के सवालात ग़ैर मुतवक़्क़े और तेज़ होते हैं। ये चीज़ें उसके मुज़्तरिब क़ल्ब की आईना-दार हैं। दर असल वो अपने दिल में एक अजीब क़िस्म की बेचैनी महसूस करता है। जब वो अपने माहौल में हर चीज़ को इन्सानियत-कुश पाता है ये इज़्तिराब ये बेक़रारी उसकी ज़बान पर चंद परेशान मगर आतिशीं अलफ़ाज़ लाती है, वो हर उस शख़्स के मुँह पर कह डालता है जो उससे हम-कलाम हो।

    फूमा गोर्ड योफ़ उस माहौल से बाग़ी हो जाता है, जो सरासर दौलत कमाने की ख़ुद-ग़रज़ ख़्वाहिशात और नफ़्स दोस्तियों से लबरेज़ है। अगनाट (फूमा का बाप बाकन (फूमा का रुहानी बाप) और इसी क़िस्म के दीगर कामयाब ताजिरों के तलाई सिक्कों की तारीफ़ में गाय हुए गीत उस पर असर अंदाज़ नहीं होते... ये लोग गाएँ, जब पास ही दूसरे रो रहे हैं...? ये ज़िंदगी एक काबूस है... ख़्वाब जिसका कोई मतलब नहीं मैं पूछता हूँ इसके मअनी क्या हैं...? इसके नीचे क्या है?'

    अगनाट, फूमा को जो अभी कमसिन लड़का होता है, समझाता है,

    ’अगर तुम ग़ुरबा को हमदर्दी की निगाहों से देखते हो तो ये एक निहायत मुबारक जज़्बा है, लेकिन तुम्हें अपनी इस हमदर्दी के साथ इन्साफ़ बरतना चाहिए। अव्वलन तुम्हारे पेश-ए-नज़र ये होना चाहिए कि वो शख़्स जिसे तुम हमदर्दी की निगाहों से देख रहे हो उसका मुस्तहिक़ भी है या नहीं, अगर ये शख़्स अहलियतों और ताक़त का मालिक है और तुम्हें उससे फ़ायदा उठाने की उम्मीद हो सकती है तो तुम ब-खु़शी उसकी मदद करो, लेकिन अगर वो कमज़ोर हो, काम करने के नाक़ाबिल है तो उस पर थूक दो और अपने मतलब से ग़रज़ रखो। ये भी वाज़ेह रहे कि वो शख़्स जो हर चीज़ के मुताल्लिक़ शिकवे शिकायत करता रहे और हर वक़्त अपना रोना रोता रहे, एक फूटी कौड़ी का हक़दार नहीं है... ऐसे शख़्स की मदद करना बेकार है!'

    बाप की इन ज़र-गिराना और ताजिराना नसीहतों के बावजूद फूमा अपनी धुन में मस्त रहा... इन पंदो-नसाइह ने एहसास बेदारी की उस चिंगारी को हवा देकर शोअलों में तब्दील कर दिया जो उसके नौख़ेज़ दिमाग़ में सुलग रही थी।

    मयाकन फूमा का रुहानी बाप अलग अपना ज़ाहिदाना राग अलापता है। वो ये वाज़ करता है,

    ’मेरे अज़ीज़, मालूम है भिकारी क्या होता है...? भिकारी वो इन्सान है जिसे क़िस्मत मजबूर करती है कि वो हमें हज़रत-ए-ईसा की याद दिलाए।

    वो ईसा का भाई है... ख़ुदा का गजर जो हमारे ख़्वाबीदा ज़मीर को बेदार करने के लिए फ़िज़ा में गूँजता है। वो खिड़की के नीचे खड़ा हो कर गाता है। ईसा की राह में... 'इस सदा से वो हमें मुक़द्दस पैग़ंबर के अहकाम की याद दिहानी कराता है कि हमें ग़ुरबा की मदद करनी चाहिए, मगर मक़ाम-ए-तास्सुफ़ है कि फ़ी ज़माना लोग अपनी ज़िंदगी कुछ ऐसे तरीक़े पर गुज़ार रहे हैं कि उसकी तामील मुहाल है... अब हम इन तमाम फ़क़ीरों और गदागरों को ऐसी चार-दीवारी में क़ैद कर देना चाहते हैं कि वहां से निकल कर वो हमारे ज़मीर को नेक काम के लिए बेदार ना कर सकें।'

    फूमा के दिमाग़ पर इन तमाम की गुफ़्तगूओं का कुछ असर नहीं होता... उसके मुँह से निकली हुई चीख़ उन ख़ुशक-ओ-तर नसीहतों की तालिब नहीं होती। फूमा रौशनी चाहता है और चूँकि रौशनी ढ़ूढ़ने की ये ख़्वाहिश उसे एक लम्हा चैन नहीं लेने देती। इसलिए वो अपने बग़ावत से भरे हुए सीने को लेकर उठता है और ज़िंदगी के हक़ीक़ी माफ़ी की जुस्तजू करता है।

    ’उस के तमाम ख़्यालात इस ग़लीज़ जमाअत पर मर्कूज़ हो गए जो सुबह से शाम तक गधों जैसी मशक़्क़त करती थी... ये मंज़र उसके लिए सख़्त ताज्जुब-अफ़्ज़ा था... उसे हैरत थी कि वो ज़िंदा क्यों हैं? उन्हें अपने तारीक माहौल में ऐसी कौन सी शुआ-ए-नज़र आई है जिसके सहारे वो जी रहे हैं...? उनका काम सिर्फ अपने ग़लीज़ फ़राइज़ को सर-अंजाम देना और कड़ी से कड़ी मशक़्क़त करना था। उनके बदन पर चीथड़े लटक रहे होते। वो सूखी रोटी पर गुज़र-अवक़ात करते और उनमें से अक्सर शराब के आदी होते...  अगर किसी की उम्र साठ साल से तजावुज़ कर गई होती तो उस ज़ईफ़ अलामरी के बावजूद वो नौजवानों के दोश-ब-दोश मशक़्क़त में मसरूफ़ नज़र आता... ये तमाम मज़दूर फूमा की नज़र में कीड़ों का एक ढेर था जो ज़मीन पर कुछ खाने के लिए रेंग रहे हो।'

    रफ़्ता-रफ़्ता फूमा ज़िंदगी का एक मुजस्सम इस्तिफ़हाम बन जाता है। वो ज़िंदा रहने से मुनकिर हो जाता है। जब तक उसे ज़िंदगी का असल मतलब समझ ना आ जाये।

    ’मैं क्यों ज़िंदा रहूं। जब मुझे पता ही नहीं है कि इस ज़िंदगी का मतलब क्या है?' वो एक बार मयाकन से दफ़अतन सवाल करता है जो उसे अपने मरहूम बाप का कारोबार सँभालने के लिए कह रहा होता है।

    दरअसल फूमा की अक़्ल उस अक़दे को हल करने से क़ासिर होती है कि लोग सिर्फ उसकी वाहिद ज़ात के लिए क्यों मशक़्क़त बर्दाश्त करें और उसके और उसकी दौलत के ग़ुलाम बनें।

    ’इन्सान के लिए मशक़्क़त ही में तमाम नेअमतें नहीं धरी हैं... काम के साथ इस अज्र को वाबस्ता करना ग़लती है। बाअज़ अफ़राद ऐसे भी हैं। जिनके हाथ मेहनत-ओ-मशक़्क़त से ना-आशना हैं लेकिन ब-ईं-हमा वो निहायत शानदार ज़िंदगी बसर करते हैं। इसकी वजह...? मेरे पास पुर-अज़-ऐश ज़िंदगी बसर करने का क्या उज़्र है? वो लोग जो दूसरों से अपने अहकाम मनवाते हैं, आरामदेह ज़िंदगी बसर करने का क्या हक़ रखते हैं...? वो किस लिए ज़िंदा रहते हैं...? मेरा मक़सद ये है कि हर शख़्स को चाहिए कि वो ज़िंदगी शुरू करने से पेशतर क़तई तौर पर मालूम कर ले कि वो किस मक़सद के लिए ज़िंदा रहना चाहता है... क्या ये मुम्किन है कि ज़िंदगी का मक़सद मशक़्क़त, रुपया की फ़राहमी, मकानों की तामीर, बच्चों का पैदा करना और मर जाना है...? हरगिज़ नहीं... मक़सद-ए-हयात कुछ और है... इन्सान पैदा होता है। कुछ मुद्दत के लिए ज़िंदा रहता है और मर जाता है... कितनी मज़हका बात है? हम सबको ये सोचना सज़ावार है कि ज़िंदगी किस लिए अता की गई है... ख़ुदा की क़सम... इसका सही जवाब सोचना हर इन्सान का फ़र्ज़ है। हमारी ये ज़िंदगी फ़ुज़ूल है, ला-यानी है... बेहूदा है। बकवास है कुछ अमीर हैं जिनके पास इस क़दर दौलत है कि वो हज़ारों इन्सानों को अपना ग़ुलाम बना सकते हैं... वो बिलकुल हाथ पैर नहीं हिलाते। दूसरी तरफ़ ऐसे लोग हैं जो तमाम उम्र मशक़्क़त में अपनी कमरें दोहरी कर लेते हैं, मगर उनकी जेबें ताँबे के एक पैसे से ना-आशना रहती हैं!!!'

    फूमा को जिस तरफ़ रौशनी की मद्धम शुआ भी नज़र आती है, वो उधर दौड़ पड़ता है उसे मालूम है कि हर चीज़ स्कीम है, मगर वो इस स्कीम को दूर करने की क़ुदरत ख़ुद में नहीं पाता। वो सिर्फ़ हमला करना और तबाह करना जानता है। वो ताजिरों की बहरा-मंद हस्तियों से सवाल करता है,

    ’ये ज़िंदगी तुम्हारी तख़लीक़ कर्दा नहीं... तुम लोगों ने इस दुनिया को गंदगी का एक अमीक़ गढ़ा बना रखा है। तुम्हारे अफ़आल ग़लाज़त-अफ़्शानी करते हैं। क्या तुम अपने पहलू में ज़मीर रखते हो...? क्या ख़ुदा की याद तुम्हारे दिलों में मौजूद है...? पाँच दमड़ी का पेशा... ये है तुम्हारा माबूद!!'

    और फिर ईसा की रुहानी आवाज़ की तरह वो उनसे मुख़ातब हो कर कहता है,

    ’ऐ  ज़रदारो... उन क़हरों पर आँसू बहाओ जो अनक़रीब तुम पर बरपा होने वाले हैं...  ख़ून चूसने वाले पिस्सूओं तुम दूसरों की ताक़त के बलबूते पर जीते हो। तुम मुस्तआर हाथों से काम करते हो... तुम तबाह हो जाओगे... तुम्हें हर चीज़ का हिसाब देना होगा... आँसू के नन्हे क़तरे तक का!'

    वो अपने गिर्द-ओ-पेश की तारीकी से मुतअज्जिब हो कर सवाल करता है और सवाल किए जाता है कि उसे इसरार का कोई हल मिल सके मगर बे-सूद, चुनांचे वो ज़िंदगी की भूल भुलैयों में ठोकरें खाता, मौत का नाच नाचता, किसी मौहूम चीज़ की तलाश में सरगर्दां और ज़िंदगी के सही मक़सद की जुस्तजू में हैरान रहता है और अंजाम-ए-कार पागल हो जाता है।

    ये किताब दिलकश नहीं है, मगर इबारत है ज़िंदगी के इस्तिफ़हाम से... उमूमी ज़िंदगी से नहीं बल्कि आजकल की मुआशरती ज़िंदगी से... ये किताब पुर-लुत्फ़ नहीं। इसलिए कि मौजूदा मुआशरत पुर-लुत्फ़ नहीं है। इस किताब के मुताला के बाद क़ारी दुनिया की अबला फ़रेबियों और दुरुग़ कारियों से आश्ना हो कर ज़िंदगी से मुतनफ़्फ़िर हो जाता है... मगर ब-ईं-हमा ये तसनीफ़ सेहत-बख़्श है। इसके औराक़ में मुआशरती मर्ज़ की ऐसी हकीमाना तशरीह की गई है और मआइब का तार-पोद इस बेदर्दी से बिखेरा गया है कि उसका वजूद सिवाए इन्सानी फ़लाह के और कुछ नहीं हो सकता।

    1905 ई. के इन्क़िलाब के बाद गोर्की की जू-ए-फ़िक्र एक तुंद-ओ-तेज़ समुंद्र की सूरत इख़्तियार कर लेती है। वो अब दुनिया का निहायत मतानत से मुताला करने के बाद निज़ाम-ए-हयात की पहनाइयों तक पहुंचता है कि अपने पेश-ए-नज़र मक़ासिद की तख़लीक़-ओ-तौलीद करे।

    उन किताबों में जो गोर्की ने उस ज़माने में सुपुर्द-ए-क़लम कीं। 'माता' सबसे मशहूर है। ये किताब जो रूसी इन्क़िलाब के ज़ेर-ए-असर लिखी गई। इन्क़िलाबी तहरीक की निहायत वाज़िह तसावीर पेश करती है। हम यहां इस पर मुख़्तसर तबसरा करते हैं,

    बीसवीं सदी के आख़िरी निस्फ़ में रूस को एक नुमायां जगह हासिल है, जिस तरह ज़मीन का ये ख़ित्ता नक़्शा आलम पर फैला हुआ है। ठीक इसी तरह मिल्लत-ए-रूस की जद्द-ओ-जहद आज़ादी के ख़ूनी वाक़ियात तारीख़-ए-आलम के बेशतर औराक़ घेरे हुए हैं... शायद ही चश्म... ऐसे लर्ज़ा ख़ेज़ वक़ाए-ओ-मनाज़िर, दिल हिला देने वाले सितम वजूर, ख़ौफ़नाक जराइम और जंग-ए-आज़ादी में ख़ून के ऐसे दरिया बहते होंगे।

    अगर ये कहा जाये कि हम इन्सानी ज़िंदगी को एक ड्रामा ख़्याल करते हैं तो इस अज़ीम ड्रामे की और कोई मिसाल पेश नहीं की जा सकती जो रूस की सुर्ख़ स्टेज पर खेला गया है।

    अगर ये कहा जाये कि हम बहादुरी के उन कारनामों क़ुर्बानियों और शुजाअतों से मुतास्सिर होते हैं, जो किसी नेक मक़सद के लिए अमल में लाई गई हैं तो रूस की इस आज़ादी की कश्मकश का और कौन मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहर सकता है।

    अगर ये कहा जाये कि हम उन जवाँ-मर्दों, बुज़ुर्गों वलियों और शहीदों का शुमार करने के बाद जिन्होंने क़स्र-ए-आज़ादी की तामीर में हिस्सा लिया, किसी क़ौम की अज़मत का अंदाज़ा लगा सकते हैं तो मिल्लत अह्मर के उन बरहना-पा मर्द और औरतों की मिसाल मौजूद है। जिन्होंने ऐवान-ए-जम्हूरियत की तासीस के लिए अपने ख़ून और गोश्त-पोस्त को पेश कर दिया। बिदेसी गु़लामी को अपनी सआदत और उस देवी की पूजा करना अपना फ़र्ज़ वाहिद ख़्याल करते थे।

    वो अपने जान-ओ-माल को ज़ार की मिलकत समझते थे।

    बादशाह का हर लफ़्ज़ लफ़्ज़ इलाही था। उसके क़लम की हर जुंबिश फ़रमान-ए-रब्बानी।

    ज़ार रूसियों के लिए ख़ुदा का साया और बाप था।

    उसके ढाए हुए मज़ालिम अवाम के लिए शहद की तरह शीरीं थे।

    रूसी क़ौम किसी तारीक ख़्वाब में मदहोश पड़ी थी।

    आख़िरश क्या हुआ?

    कोरनिश बजा लाने वाले हाथ सितम-वाराना उठे और ज़ार को उसके तख़्त से नीचे घसीटने लगे।

    ठोकरें खाए हुए सीने उभरे और ज़ार की मुतलक़-उल-एनानी के मुक़ाबिल आहनी दीवार बन गए।

    बादशाह के ढाए हुए तल्ख़ मसाइब को अवाम ने उसी के मुँह पर थूकना शुरू कर दिया।

    जरस-ए-इन्क़िलाब का बेपनाह शोर बुलंद हुआ और क़ानून की बुलंद आहंगी को हमेशा के लिए अपनी आग़ोश में समेटना शुरू कर दिया।

    फिर उसी ख़ुशगवार बाद-ए-नसीम के रौंदे हुए लोगों पर जन्नत अर्ज़ी के तमाम दरवाज़े नीम वा होने लगे।

    माता उसी ज़माने की एक दास्तान है, जब जंग-ए-आज़ादी की तड़प हर नौजवान के क़ल्ब को गरमाए हुए थी। इस ख़ूँ-चकाँ कहानी में मिल्लत अह्मर के माया-नाज़ मुफ़क्किर गोर्की ने उस ख़ूनी जद्द-ओ-जहद की इस कामयाबी-ओ-फ़नकारी से तसावीर खींची हैं कि हमारी आँखों के सामने वो वाक़िया हू-ब-हू रक़्स करता नज़र आता है।

    दर असल रूस के यहां हर चीज़ एक अज़ीम पैमाने पर है। उसके अफ़साना निगारों की कहानियां मेंढ़क के पांव की उन बड़ी तसावीर की मानिंद होती हैं जो किसी तिब्बी स्कूल के कमरे में पर्दा-सीमीं पर दिखलाई जा रही हों। इन तसावीर के ज़रिये से हम दिलों में दौड़ता हुआ ख़ून, हरकत करती हुई नसें और पुर-असरार निज़ाम असबी को जो इससे पेशतर हमारी आँखों से निहां था, ब-ख़ूबी मुशाहिदा कर सकते हैं, ठीक उसी तरह के जज़्बात-ओ-हिसिय्यात जो उससे क़ब्ल सिर्फ हमारी समाअत तक महदूद थे। गोर्की के बयान कर्दा वाक़ियात से हम पर रौशन हो जाते हैं।

    मयख़ानों में खु़फ़िया मुलाक़ातें, सरगोशियों में तबाहकुन साज़िशों की तैयारी, रात की तैयारी में ख़ंजर की झलक, मंडलाते हुए जासूस, मसाइब-ओ-नवाइब के तीरों से छलनी दिल, गली कूचों में सदा-ए-इंतिक़ाम, ख़ून की नदियाँ, ग़ैर मुख़्ततम ग़मवांदवो, ला-मुतनाही सैल-ए-इश्क़ और बरहना-पा व गुरुस्ना शिकम इन्सानों की ख़ून मुंजमिद कर देने वाली बर्फ़बारी में हसरत-नाक अम्वात हमारी आँखों के सामने वक़ूअ पज़ीर होती नज़र आती हैं।

    रूसी तुंद-ख़ू भी हैं और नर्म मिज़ाज भी। ज़ालिम भी हैं और रहम-दिल भी। नफ़रत भी करते हैं और प्यार भी। जाहिल भी हैं और आलिम भी। बेवक़ूफ़ भी हैं और चालाक भी। बादशाहत के हामी भी हैं और आज़ादी के दिलदादा भी। ग़ैर हस्सास भी हैं और हस्सास भी। भोले भी हैं और ज़माना-साज़ भी। सबसे ज़्यादा जज़्बाती भी हैं, मगर सबसे ज़्यादा दबे हुए भी हैं। इन सब के अलावा उनमें महसूस करने का माद्दा अपनी हमसाया क़ौमों से कहीं ज़्यादा है और ग़ालिबन यही उनके तस्वीर-नुमा अफ़्क़ार का सबसे बड़ा राज़ है। जिसे देखकर दुनिया आँखें झपकती रह गई है। अफ़साना-निगारी में उनका ना-क़ाबिल-ए-नक़ल फ़न किसी और दिमाग़ के बस का नहीं है।

    रूस के उन तमाम मुफ़क्किरों और उनकी तमाम तसानीफ़ में से जो इन्सानी क़ुलूब पर असर-अंदाज़ होती हैं, बिला शक-ओ-शुबहा गोर्की सबसे बड़ा मुफ़क्किर और उसका शाहकार 'माता' (मदर) सबसे आला तसनीफ़ है।

    कोई दूसरा इंशापर्दाज़ या अफ़्साना-निगार इन वाक़ियात का सिर्फ हल्का सा ख़ाका खींच कर बस कर देता जो फ़िज़ा में ठोस चट्टानों की मानिंद खड़े थे, मगर गोर्की का क़लम उस ठोस मौज़ू पर शुरू से लेकर आख़िर तक एक ही रवानी से चला है और इस दौरान में उसकी फ़नकारी में किसी मुक़ाम पर भी लग़्ज़िश नहीं आने पाई।

    ज़िंदगी के इस पेश-ए-नज़र टुकड़े को जिस पर वो अपने ला-सानी अफ़साने की चार-दीवारी बुलंद करना चाहता है, वो किसी माहिर मेअमार की तरह हर पहलू से ब-ग़ौर देखता है ताकि इमारत में कोई ख़ामी ना रह जाये।

    गोर्की ये अफ़साना लिखने से पेशतर चारों तरफ़ निगाह दौड़ा कर हक़ीर से हक़ीर वाक़ियात को भी फ़राहम कर लेता है कि शायद वो किसी जगह के लिए मौज़ूं हो। शोरबे की तल्ख़ी, मर्द के बूट से चिमटी हुई बर्फ़, किसी औरत के बालों में अटके हुए बर्फ़ के गोले, लकड़ियाँ काटता हुआ लक्कड़हारा, दहक़ानों की भद्दी गुफ़्तगू, पियानों के छेड़े हुए नग़मे, संतरी की आँखों में हैवानी झलक, बाज़ारों में उड़ती हुई कीचड़ और कारख़ानों के बुलंद दूद-कशों का सियाह धुआँ... इन तमाम कम हक़ीक़त और मुहमल चीज़ों के इज्तिमा से उसका दस्त-ए-फ़िक्र ऐसे मनाज़िर पेश करता है जो अपने अंदर असर पैदा करने की क़ुदरत रखते हैं।

    गोर्की के ये अफ़्क़ार हमारे दिल-ओ-दिमाग़ को चीरते हुए अंदर दाख़िल हो जाते हैं। ये फ़िल्मी तसावीर जो उसने एक मुरक़्क़ा में जा-ब-जा चिपका दी हैं, एहसासात की उन अमीक़ गहराइयों में ले जाती हैं, जिनसे रूमानी अफ़साने और अक्सी तसावीर आजिज़ हैं।

    इसकी वजह ये है कि उसने हमारे अज़हान में हक़ीक़ी ज़िंदगी का इंजेक्शन कर दिया है। ये जुदा अम्र है कि हम उसकी बयान कर्दा दास्तान के महल्ल-ए-वुक़ूअ की सरज़मीन से वाक़िफ़ नहीं, मगर उसने हमारे सामने रूसी ज़िंदगी ऐसे साफ़-ओ-अयाँ तौर पर पेश की है कि अब हमें मज़ीद मुताला या मुशाहिदा की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

    गोर्की का फ़क़ीद उल-मिसाल और पुर-असरार फ़न इसी में मुज़्मर है कि वो अपने क़लम की सीधी-सादी जुम्बिशों से हम पर दहक़ान की झोंपड़ी का मंज़र, सुरमा की ख़ून मुंजमिद कर देने वाली सर्दी और गांव के नियम बरहना लोगों की ठहरे पानी ऐसी ज़िंदगी और खंडरों में इन्सानी अरवाह की कश्मकश की सही कैफ़ियत तारी कर देता है... इसके अलावा आर्ट का मक़सद हो भी क्या सकता है।

    रूस के तमाम ड्रामों में ये उमूमी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ हैं, ये तमसील सबसे नुमायां रुत्बा रखती है। जिसमें पुराने निज़ाम को पाश-पाश करने के लिए एक तवील जंग मुद्दत तक करवटें लेती रही है।

    कम-ओ-बेश एक सौ साल तक रूसी लोग जेलों को आबाद करते रहे। मुक़न्निनीन और जल्लादों को मश्ग़ूल रखा। सायबेरिया के यख़-बस्ता मैदानों में मुंजमिद होना क़बूल किया और हुक्काम को ख़तरे की घंटियाँ बजा बजा कर झिंझोड़ते रहे। जब हमें ये हक़ीक़त मालूम हुई कि सत्तर साल के दौरान में आठ लाख से कुछ ज़्यादा सियासी असीर अदालत के एक दरवाज़ा से साइबेरिया में धकेल दिए गए थे तो वो वाक़ियात जिनकी गोर्की नक़ाब कुशाई करता है, बईद अज़ फ़हम मालूम नहीं होते।

    दर असल रूस की ये जंग-ए-आज़ादी अपनी मिसाल नहीं रखती। जमहूरी हुकूमत के लिए इटली की पचास साला कश्मकश को अभी इस पर वक़अत नहीं दी जा सकती।

    हर साल हज़ारों रूसी औरतें और मर्द बढ़ते और जिला-वतन और मरे हुए लोगों की ख़ाली जगह पुर कर देते। ये जानिसार लोग उस वक़्त तक दम ना लेते, जब तक हुकूमत के भयाकन निज़ाम की सर्द उंगलियां उनका गला ना दबा देतीं, मैदान-ए-जंग में सर-ब-कफ़ निकलना उस वक़्त वाक़ई मअनी रखता है। जब दोनों फ़रीक़ हम पल्ला हों। ज़िंदगी और फ़तह का एक मौक़ा हो। इस सूरत में मादर-ए-वतन के हर फ़र्द की ज़िंदगी की रग में ख़ून जोश से उबलने लगता है। ख़तरे का ख़ौफ़ ग़ायब हो जाता है और क़ुर्बानियों की तड़प पैदा होती है। मगर ग़ैर मरई ख़ामोश अय्यार और ख़ूनी क़ातिलों से तारीकी के पर्दे में जंग किए जाना हमेशा अपनी जान ही के ख़तरे का एहतिमाल होना, ये समझते हुए कि इस कश्मकश का अंजाम यक़ीनी मौत है और फिर उस अंजाम को बेधड़क क़बूल कर लेना, ऐसी हिम्मत-ओ-जवाँ मर्दी है जो आज तक कोई क़ौम नहीं दिखा सकी।

    रोज़-ब-रोज़ रूस दीगर ममालिक की एनान तवज्जो अपनी तरफ़ खींच रहा है और अभी काफ़ी मुद्दत तक अपनी मुआशरती सियासी और अदबी तहरीकात की वजह से खींचता रहेगा। मौजूदा रूस को वो शख़्स हरगिज़ अच्छी तरह नहीं समझ सकता, जो पुराने रूस को समझने से क़ासिर है। रूस की जद्द-ओ-जहद आज़ादी के ज़माने पर रौशनी डालने के लिए सिर्फ गोर्की का चिराग़ फ़िक्र ही सबसे ज़्यादा ताबां है। वो वाक़ियात जिन्हें क़लम-बंद करने के लिए एक फ़लसफ़ा-दान और मुअर्रिख़ साल-हा-साल की तवील कोशिश के बावजूद भी नाकाम रहता। गोर्की की 'माता' ने चंद मुख़्तसर अबवाब में बयान कर दिया है। जब इस दास्तान का मुताला किया जाये तो रूस रौशनी में नज़र आता है।

    ज़िंदगी जैसी है ना कि जैसी हो सकती है। ख़्याल की जा सकती है या होगी ये है गोर्की का फ़न और यही है रूस के दीगर अफ़साना निगारों का राज़।

    नक़्ली महज़ नक़ली इन्सानियत या नक़्ली ज़िंदगी के नक़ली नक़्शों से रूसी अफ़साना निगारों को कोई सरोकार नहीं है। उनके नज़दीक सिर्फ़ कहानी का ढांचा ख़्याली हो सकता है और बस बाक़ी अफ़साने के सब किरदार हक़ीक़ी होने लाज़िमी हैं।

    इन्सान को ब-यक-वक़्त हसीन जवाँ मर्द और चालाक शैतान पेश करना उनके नज़दीक फ़न्न-ए- सही व सनअत-ए-संजीदा है। ग़ालिबन यही वजह है कि वो मग़रिबी अफ़्क़ार के तूमार को बंज़र इस्तिहसान नहीं देखते। परियों, देवों नाक़ाबिल-ए-फ़हम नौजवानों और लड़कियों की कहानियां उनकी नज़रों में बिलकुल मोहमल नज़र आती हैं। वो इसे ब-ख़ूबी समझते हैं कि ऐसे वाक़ियात पर्दा ज़हूर पर हरगिज़ नहीं आते। मग़रिबी किरदारों की सफ़हात पर थका देने वाली भाग दौड़ को वो बच्चों का एक खेल ख़्याल करते हैं... वो सख़्त हैरान हैं कि मग़रिबी अज़हान कब इस ख़ाब से बेदार होंगे।

    गोर्की की क़ुव्वत-ए-बयान को समझने की ख़ातिर इस फ़र्क़ को अच्छी तरह ज़हन-नशीन कर लेना ज़रूरी है... इसकी तसानीफ़ में उसके किरदार ब-ज़ाहिर बिलकुल बे-मआनी सी बातें करते हैं। इसलिए कि इन्सानी गुफ़्तगू निनानवे फ़ीसद इसी किस्म की होती हैं। उसके बयान कर्दा लोग अजीब-अजीब हरकात करते हैं। बहुत जल्द आग भभूका हो जाते हैं। बग़ैर किसी वजह के फ़ौरन ही उनका ग़ुस्सा सर्द हो जाता है। उनकी सरगर्मियों का आग़ाज़-ओ-अंजाम वाक़ियात की रफ़्तार पर इन्हिसार रखता है और वो इस दौरान में मुक़द्दर के इंतिख़ाब कर्दा हथियारों का काम देते हैं। इसलिए कि हयात–ए-हक़ीक़ी में उनका यही हिस्सा है।

    ये हक़ायक़ गोर्की के क़लम से इस अंदाज़ में बयान किए जाते हैं कि हमारी नज़रों के सामने वो तारीक भयानक बेरहम कोर चश्म और ख़ून में लिथड़ी हुई मशीन वाज़ेह तौर पर हरकत करने लगती है जो रूस पर हुकूमत कर रही थी। गोर्की ने ना सिर्फ यही कुछ किया है बल्कि हमारे जिस्म पर इस ख़ौफ़ की कपकपी भी तारी कर दी है। उसकी ये तसनीफ़ मुताला करने के बाद हम उस आहनी देव की गिरफ़्त महसूस करते हैं जो उस ज़माने में सरज़मीन-ए-रूस पर डकार रहा था।

    इस तरह गोर्की हमारी हैरत-ज़दा आँखों के सामने अपने ख़ौफ़नाक निज़ाम की जिसकी गिरफ़्त से कोई भी रिहाई नहीं पा सकता, उस मर्द की जो अपने मसाइब को फ़रामोश करने की दवा को शराब ख़्याल कर के पीता हैवान बन जाता है और इस दीवानगी की हालत में अपनी बीवी को ज़द-ओ-कूब करता है और उस नौजवान की जो एक किताब में दुनिया-ए-आज़ादी की झलकियाँ देखकर ख़ुद को दहकते हुए अलाव में गिरा देता है, ये जानते हुए कि वो देव जिससे वो बरसर-ए-पैकार है। किस आसानी से उसका ग़ुन्चा-ए-हयात अपने हाथों से मसल सकता है, हिकायत पेश करता है। तबक़ा-ए-आला के इस फ़र्द का अफ़साना जो ख़तरनाक मवाक़ेअ की नब्ज़ गिरती देखकर इन्क़िलाब पसंद जमाअत का रुकन बन जाता है, नाज़-ओ-नेअमत में पली हुई उन औरतों की दास्तान जो बग़ैर किसी हियल-ओ-हुज्जत के कश्मकश-ए-आज़ादी में मर्दों के दोश-ब-दोश हिस्सा लेती हैं, ख़्वाह उन्हें कैसे ही लर्ज़ां-ख़ेज़ मसाइब से क्यों ना सामना करना पड़े, तप-ए-दिक़ के एक ख़ून थूकने वाले मरीज़ के इसार का वाक़िया जो इस जद्द-ओ-जहद में तादम आख़िर हिस्सा लेता है, कमाल-ए-फ़नकारी से बयान करता है।

    एक नौजवान और दोशीज़ा मुहब्बत में गिरफ़्तार हैं। वो शादी के ख़्याल को बालाए ताक़ रख कर जंग-ए-आज़ादी में शामिल हो जाते हैं... इसलिए कि मुहब्बत उनके नेक मक़सद में हारिज है। एक तालीम-याफ़ता मुताला-ए-कुतुब-ए-मौसीक़ी और अम्न का दिल-दादा है, वो उनको फ़रामोश कर देता है... इसलिए कि उसकी जद्द-ओ-जहद आज़ादी में चीज़ें मुख़िल हैं, फिर उसी तालीम-याफ़ता मर्द की नौजवान बहन अपने ख़ुशनुमा लिबासों और पुर तकल्लुफ़ बिछौनों को ठुकरा कर इन्क़िलाब पसंद जमाअत में एक क़ुली के फ़राइज़ अंजाम देती है।

    ’एक पुर-अज़-मसर्रत हंसी के साथ सोफिया ने माता को अपनी इन्क़िलाबी सरगर्मियों का हाल सुनाना शुरू किया। जैसे वो बचपन की ख़ुशगवार दास्तान हो।

    सोफिया को अपना नाम तब्दील करना पड़ा था। जासूसों की तेज़ निगाह से बचने के लिए मुख़्तलिफ़ भेस बदलने पड़े थे। हज़ारों मन वज़नी इन्क़िलाबी काग़ज़ात एक शहर से दूसरे शहर में मुंतक़िल करना पड़े थे और अपने रफ़ीक़ों की रिहाई के लिए बीसवीं तदाबीर अमल में लाना पड़ी थीं। उसके पास काग़ज़ात छापने के लिए एक छोटा सा प्रेस भी था। जब उसे मालूम हुआ कि सिपाही तलाशी के लिए बाहर दरवाज़े पर खड़े हैं तो उसने उनके अंदर दाख़िल होने से एक लम्हा पहले ख़ादिमा का लिबास पहना और घर से बाहर निकल गई।

    वो उन्हें रास्ते में मिली। चेहरे पर सिर्फ एक हल्की सी नक़ाब थी। सर पर उसने छोटा सा रूमाल ओढ़ रखा था। हाथ में मिट्टी के तेल का भभ्गा था। इस हालत में वो मुकम्मल एक दिन सरमा की बेपनाह सर्दी में शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाती रही थी।

    इसी तरह एक दफ़ा और ये वाक़िया हुआ था। वो अभी एक ग़ैर मानूस शहर में चंद रफ़ीक़ों की मुलाक़ात के लिए पहुंचकर उनके मकान की सीढ़ियां ही चढ़ रही थी कि उसे मालूम हुआ कि उन लोगों की तलाशी हो रही है। भागना फ़ुज़ूल था। इसलिए उसने बग़ैर किसी ताम्मुल के दरमियानी छत के एक दरवाज़े की घंटी दबा दी और दरवाज़ा खोल कर उन नामालूम अश्ख़ास के पास चली गई जिनसे वो क़तअन नावाक़िफ़ थी और अपनी मौजूदा हालत साफ़ साफ़ बयान कर दी।

    ’अगर आप चाहें तो मुझे सिपाहियों के हवाले कर सकते हैं, मगर मुझे उम्मीद नहीं कि आप ऐसा करेंगे।’

    ऐसे मर्द और औरतों के हालात पढ़ लेना ही काफ़ी है, मगर उनको अपनी आँखों से देखना समझना सुनना, उनके काम का मुशाहिदा करना और नंगे हाथों से मुतलक़-उल-एनानी की उन सीसा पिलाई हुई ख़ूनी दीवारों को मुनहदिम करने की सई करते देखना जो रूस के कमज़ोर-ओ-नहीफ़ सीने पर सवार थीं। ज़्यादा एहमियत रखता है... ये सब मनाज़िर गोर्की अपने क़लम की एक जुंबिश ही से हम पर वाज़ेह कर देता है और उसकी इस तसनीफ़ के औराक़ पर फैला हुआ सहर उभर-उभर कर हमें बोल्शेविज़्म के असरार बताता है।

    इन मनाज़िर में हम एक बूढ़ी औरत देखते हैं, जो इस अफ़साने की रूह-ए-रवाँ है। ये औरत (माता) उम्र रसीदा है। एक ख़ास शब तक वो इसी मोहलिक निज़ाम के लाखों गूँगे शिकारों में से थी। कमाल-ए-सब्र से अपने ख़ाविंद की मार पीट सहती थी। उसकी किताब-ए-हयात में हर नया बाब इस उम्मीद का हामिल था कि शायद वो अपने ख़ाविंद की ज़द-ओ-कूब से बच जाये। अपनी हड्डियों में हैवानी ज़िंदगी को बरक़रार रखना ही उसकी वाहिद ख़ाहिश थी।

    फिर हम क्या देखते हैं।

    गोर्की का सहर-आफ़रीन क़लम इसी एक औरत में तमाम रूस को पेश कर देता है। बग़ावत का एहसास अव्वलीन उसे ख़ौफ़-ज़दा कर देता है। वो ख़्याल करती है। क्या? ज़ार के ख़िलाफ़ नबर्द आज़माई... इसराईली क़ौम के मुक़द्दस फ़र्द से जंग, आसमानी हुक्म से बेगानगी, जिसने ये ताजपोश शैतान उनकी गर्दनों पर मुसल्लत कर दिया है।

    मगर ये ख़्याल तब्दील हो जाता है।

    वो दिलकश, जान परवर और अजीब ख़्वाबों के क़रीब पहुंच कर उन्हें पसंद करना शुरू कर देती है। उनमें हिस्सा लेना चाहती है।

    नतीजा क्या होता है?

    ये औरत ऐसे सब्र-आज़मा पुर अज़ शुजाअत काम करती है, जिनके लिए दिलेरी दरकार है। भेस बदलती है कि वो सिपाहियों के साथ हम-कलाम हो सके। पुर-मग़्ज़ जासूसों के हुजूम को धोका देती है। कीचड़ और बर्फ़ से अटे हुए बाज़ारों में मीलों सफ़र करती है कि इन्क़िलाबी लिट्रेचर तक़्सीम कर सके। अपने इकलौते बच्चे को जो दुनिया मे उसका वाहिद सहारा था, इस तहरीक की भेंट चढ़ा देती है और आख़िरश थक कर चूर-चूर गाड़ी के ज़ालिम पहियों से लिपट कर अपनी जान क़ुर्बान कर देती है... मगर हालत-ए-नज़ाअ में भी उसके लबों पर आज़ादी का वही गीत होता है।

    ये मौत उस वक़्त वुक़ूअ-पज़ीर होती है जब वो एक मक़ामी स्टेशन पर अपने लड़के की तक़रीर की छपी हुई कापियां बग़ल में दाबे जा रही थी... पुलिस के सिपाही और जासूस उस का तआक़ुब कर रहे हैं और उसे 'चोर' ’चोर' कह कर पुकार रहे हैं। उस वक़्त तक वो सख़्त ख़ौफ़ज़दा और सर-ता-पा इर्तिआश थी और अपने आपसे कह रही थी।

    ’अगर वो मुझे ना मारें तो कितना अच्छा हो... अगर वो मुझसे मार पीट ना करें तो कितना अच्छा हो।'

    मगर 'चोर' का लफ़्ज़ उस की ख़ुफ़्ता रूह को बेदार कर देता है... उसका ख़ौफ़ दूर हो जाता है।

    ’मैं चोर नहीं हूँ... तुम झूट कहते हो।'

    वो अपने फेफड़ों की पूरी क़ुव्वत से बुलंद आवाज़ में चिल्लाई। ये कहते वक़्त सब की नज़रों के सामने तमाम चीज़ें इन्क़िलाबी चक्कर की तरह रक़्स करने लगीं और हतक की तल्ख़ी ने उसके दिल-ओ-दिमाग़ को गर्मा दिया। उसने एक झटके के साथ अपना बस्ता खोल दिया।

    ’देखो देखो तुम सब लोग इधर देखो!'

    वो चिल्लाई और अपने लड़के की तक़रीर की छपी हुई कापियों के मुट्ठे हवा में लहराए। अपने कानों से उसने शोर में उन लोगों की हैरत की सदाएँ सुनीं जो चहार अकनाफ़ से उसके गिर्द जमा हो रहे थे।'

    माता अपने बस्ते से तक़रीर की कापियां निकाल कर हवा में उछाल देती है और बुलंद आवाज़ में कहती है,

    ’ग़ुर्बत गुरुसंगी और बीमारी है... ये है जो काम, ग़रीब लोगों को अता करता है। ये हालात हमें जराइम और बद-कारियों की तरफ़ कशां-कशां ले जाते हैं। हम सबके ऊपर उमरा ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी बसर करते हैं। इस ग़रज़ से कि हम उनके अहकाम बजा लाएंगे। पुलिस हुकूमत सिपाही सब उनके हाथ में हैं... ये सब लोग हमारे दरपे आज़ार हैं। सब चीज़ें हमारे ख़िलाफ़ हैं। हम रोज़-ब-रोज़ मेहनत-ओ-मशक़्क़त और ग़लीज़ ज़िंदगी में अपनी जानें तबाह कर रहे हैं... दूसरे हमारे बहाए हुए पसीने पर ऐश करते हैं। उन्होंने हमें कुत्तों की तरह ज़ंजीरों से जकड़ रखा है। हमें कुछ मालूम नहीं। ख़ौफ़ के साय तले हम हर चीज़ से ख़ाइफ़ हैं... हमारी ज़िंदगी रात है, एक अँधेरी रात... एक वहशत-नाक ख़्वाब। उन्होंने हमें तेज़ ज़हर पिला रखा है। वो हमारा लहू पीते हैं। इफ़रात ऐश उन्हें फ़र्बा कर रहा है... शैतान हिर्स के ग़ुलाम... क्या वो नहीं हैं।

    ये 'दरुस्त है' लोगों की तरफ़ से जवाब आया।

    इस हुजूम के पीछे माता एक मुख़बिर और दो सिपाहियों को देखकर जल्दी जल्दी काग़ज़ों के मुट्ठे तक़सीम करना शुरू कर देती है। सिपाही पहुंच जाते हैं,

    ’बेंच पर खड़ी हो जाओ।' सिपाही माता को हुक्म देते हैं।

    ’मैं बहुत जल्द गिरफ़्तार कर ली जाऊँगी।'

    ’ये ज़रूरी नहीं है।'

    ’जल्दी बोलो... वो आ रहे हैं।'

    पुलिस के सिपाही दौड़ कर मौक़े पर पहुंच जाते हैं और हुजूम को मुंतशिर करने की कोशिश करते हैं। माता अपनी तक़रीर जारी रखती है,

    ’लोगो, अपनी तमाम कुव्वतों को एक मर्कज़ पर जमा कर लो!'

    एक मोटा सिपाही अपने सुर्ख़ हाथ से उसका कालर पकड़ कर झिंझोड़ता है।

    ’ख़ामोश रहो।'

    उसकी गर्दन दीवार से टकराई। थोड़ी देर के लिए उसके दिल पर ख़तरे का तारीक धुआँ छा गया, मगर फ़ौरन ही वो फिर शोला-फ़िशाँ हुई।

    इसी लम्हे एक सिपाही दौड़ता हुआ आता है और उसे अपना घूँसा तान कर दिखाते हुए कहता है।

    ’ख़ामोश बूढ़ी मक्कार!'

    ये सुनकर माता की आँखें, खुलीं चमकीं। उसके जबड़े काँपे। फिसलते हुए पत्थरों पर क़दम जमा कर और अपनी क़ुव्वत के आख़िरी टुकड़े फ़राहम करने के बाद वो चिल्लाई,

    ’बेदार रूह को वो हरगिज़ फ़ना नहीं कर सकते।'

    सिपाही ने अपना हाथ झटक कर उसके मुँह पर ज़र्ब लगाई, एक लम्हा के लिए किसी सुर्ख़-ओ-सियाह चीज़ ने उसकी आँखों को अंधा कर दिया। ख़ून का नमकीन ज़ायक़ा उसके मुँह को बदमज़ा कर रहा था।

    वो उसे ज़ोर कूब करते घसीटते हुए ले जाते हैं। इस हालत में भी वो बराबर कहे जाती है,

    ’तुम हक़ को ख़ून के समुंद्र में ग़र्क़ नहीं कर सकते।'

    फिर वो उसका और उसकी आवाज़ का गला घूँट देते हैं।

    ये है उस औरत की दास्तान जो अपने ख़ाविंद की मारपीट से ख़मीदा कमर सीधी करने के बाद आज़ादी की जद्द-ओ-जहद में शामिल हुई और ज़ालिम सिपाहियों के हाथों दूसरे लोगों को ख़ाब गु़लामी से बेदार करने की सई करती जान दे गई।

    उसका लड़का पॉवेल शुरू शुरू में अपने बाप के नक़्श-ए-क़दम पर चलना चाहता है। अपने बाप की वफ़ात के दो हफ़्ते बाद वो शराब से मख़मूर घर में दाख़िल होता है और अपने बाप की तरह एक कोने में लड़खड़ाता हुआ बैठ कर चिल्लाता है।

    ’खाना!'

    उसकी माँ आई और उसके सर को अपनी छाती से लगा लिया, मगर पॉवेल ने उसे एक तरफ़ हटा कर कहा,

    ’जल्दी करो।'

    ’माता ने ग़मगीन और मुहब्बत भरी आवाज़ में कहा। 'बेवक़ूफ़ लड़के!'

    मगर पॉवेल शराब से मख़्मूर है वो उसी को राज़-ए-हयात समझता है कि अपने बाप की पैरवी करे। वो शराब के नशे में कहता है।

    ’लाओ मेरे बाप का पाइप कहाँ है? मैं आज से तंबाकू पीना भी शुरू करूँगा।

    पहली मर्तबा उसने शराब को मुँह लगाया है। गो शराब ने उसके जिस्म को कमज़ोर और मुर्दा कर दिया है मगर उसका ज़मीर ज़िंदा है, जो उसे मलामत करता है और उसके कानों में पुकारता है कि वो शराबी है... एक बेहोश शराबी।

    मां की मुहब्बत उसे सख़्त तकलीफ़ पहुंचाती है। वो अपनी माँ की आँखों में ग़म की झलक देखकर बहुत मुतास्सिर होता है। उस वक़्त उसकी सिर्फ एक ख़्वाहिश है कि वो रोये और ख़ूब रोये। इस ख़्वाहिश पर ग़लबा पाने के लिए वो अपने आपको ज़्यादा मख़मूर करता है, मगर माँ उसे प्यार से कहती है।

    ’बेटा, तुमने ऐसा बुरा काम क्यों किया... तुम्हें ये नहीं करना चाहिए था!'

    थोड़ी देर के बाद माता उसे बिस्तर पर लिटा देती है और उसकी दहकती पेशानी पर ठंडे पानी से तर तौलिया रख देती है। इस पर पॉवेल को क़दर-ए-होश आता है और वो सोचता है,

    ’मेरा ख़्याल है कि मैंने क़ब्ल अज़ वक़्त शराबनोशी शुरू कर दी है। दूसरे भी तो पीते हैं। उन्हें कुछ नहीं होता, पर मैं बीमार पड़ गया हूँ।'

    कमरे के किसी हिस्से से माता की ग़मगीन आवाज़ सुनाई दी,

    ‘तुमने अभी से शराब पीना शुरू कर दी है। अब तुम मेरी ख़बर-गिरी कैसे कर सकोगे।

    पॉवेल आँखें बंद कर के जवाब देता है,

    ’हर शख़्स पीता है।'

    ’हर शख़्स पीता है।' इन मुख़्तसर अलफ़ाज़ में गोर्की ने उन तमाम मज़दूरों का सही नक़्शा खींच दिया है जो मशक़्क़त से चूर-चूर होकर किसी अर्ज़ी लज़्ज़त के ख़ाहां थे।'

    वो शराब क्यों पीते थे? इस के जवाब के लिए गोर्की के अपने अलफ़ाज़ मौजूद हैं।

    ’साल-हा-साल की जमा शूदा थकावट ने उनकी भूक छीन ली थी। कुछ खा सकने के लिए वो शराब-नोशी करते... अपने कमज़ोर मादों से काम लेने की ख़ातिर 'वोदका' का झुलस देने वाला चाबुक इस्तिमाल करते थे।

    अपने बेटे का जवाब सुनकर माता ठंडी सांस भरती है क्योंकि उसे मालूम है उसका लड़का दरुस्त कहता है। माता को अच्छी तरह इल्म है कि शराब-ख़ाने के सिवा मर्दों के लिए कोई और जगह नहीं, जहां वो अपना ग़म ग़लत कर सकें, मगर फिर भी वो अपने बच्चे को नसीहत करती है कि उसे शराबनोशी तर्क कर देनी चाहिए। इसलिए कि उसके बाप ने उसके हिस्से की पी कर उसे काफ़ी से ज़्यादा तंग किया था।

    ’पॉवेल कुछ समझने लगता है।'

    ’माँ की ग़मगीन और तरहहुम-अंगेज़ गुफ़्तगू सुनकर पॉवेल ने ख़्याल किया कि उसकी माँ अपने ख़ाविंद की बेजा मारपीट से बचने के लिए हमेशा चुपचाप रहा करती थी वो ख़ुद चूँकि अपने वालिद की ख़श्मगीन निगाहों से बचने की ख़ातिर हमेशा घर से ग़ैर-हाज़िर रहा करता था इसलिए उसे अपनी माँ को जानने का बहुत कम इत्तिफ़ाक़ हुआ था, मगर अब जूँ-जूँ उसे होश आने लगा, उसने अपनी माँ की तरफ़ ग़ौर से देखना शुरू किया।

    उसकी माँ लंबे क़द की और ऊपर से ज़रा झुकी हुई थी। उसका भारी जिस्म साल-हा-साल की अनथक मेहनत और ख़ाविंद की मारपीट से अब बड़ी मुश्किल से हिलता था। वो कमरे में इस अंदाज़ से टहल रही थी कि मालूम होता था अभी गिर पड़ेगी।

    ये देखकर और इस पर ग़ौर करने के बाद पॉवेल उसी दम शराब की लानत दूर करने का तहैय्या कर लेता है और फिर कभी मय-नोशी नहीं करता।

    वो मय-नोशी नहीं करता तो क्या करता है।

    एक किताब उसके ख़ुफ़्ता साज़ दिल पर मिज़राब का काम देती है और उसके पैदा-कर्दा नग़मात से मुतास्सिर होकर वो इन्क़िलाब पसंद जमाअत में शामिल हो जाता है... शराबी क़स्र-ए-आज़ादी का मेेअमार बन जाता है। रूस के गली कूचे उसकी सदा-ए-इंतिक़ाम से गूंज उठते हैं।

    पॉवेल अपने रफ़ीक़ों समेत पकड़ा जाता है और अदालत के रू-ब-रू पेश किया जाता है। वहां वो अपना बयान देता है,

    ’हम इश्तिराकी हैं... सरमाए के दुश्मन, जो लोगों को एक दूसरे से अलैहदा करता है, जो इन्सान को इन्सान के ख़िलाफ़ लड़ने पर आमादा करता है... हमारे नज़दीक वो समाज जो इन्सान को अपनी दौलत बढ़ाने का आला तसव्वुर करता है। ग़ैर इन्सानी है।

    हम लड़ना चाहते हैं और हर उस बंदिश के ख़िलाफ़ जो इन्सान को जकड़े हुए है लड़ेंगे। ख़्वाह वो अख़्लाक़ी हो या जिस्मानी... हम मज़दूर हैं... वो लोग जिनकी मशक़्क़त नन्हे खिलौनों से लेकर देव-क़ामत मशीनें तक तैयार करती है। हम वो अफ़राद हैं जो अपनी इज़्ज़त-ए-नफ़्स को बरक़रार रखने के हक़ से महरूम कर दिए गए हैं। हर शख़्स हमें इस्तिमाल करने में कोशां है और अपने आराम के लिए हमारा हर वक़्त इस्तिमाल किया जाता है... अब हम इतनी आज़ादी के ख़ाहां हैं जो हमारे लिए तमाम कुव्वतों को मसख़र करना मुम्किन बना दे। हमारा मुतम्मा-ए-हयात बिलकुल साफ़ और सीधा है। तमाम इख़्तियार अवाम के हाथों में पैदावार के तमाम ज़राए अवाम के लिए सबके लिए काम करना फ़र्ज़... इन्फ़िरादी सरमाए की बीख़-कनी और बस। आप देखते हैं, हम बाग़ी नहीं हैं।'

    जज आग़ोश-ए-जिहालत में परवरिश पाए हुए शख़्स के मुँह से फ़ाज़िल मुक़र्रर ऐसे अलफ़ाज़ सुनकर बहुत हैरान होता है, मगर फ़ौरन ही उसे अस्ल मौज़ू की तरफ़ पलटने का हुक्म देता है। पॉवेल थोड़ी देर के बाद अपनी तक़रीर शुरू करता है।

    ’हम इन्क़िलाबी हैं और उस वक़्त तक इन्क़िलाबी रहेंगे जब तक ज़ाती सरमाए का वुजूद बाक़ी है। जब तक चंद अफ़राद हुकूमत करते हैं और बाक़ी सिर्फ मेहनत-ओ-मशक़्क़त करते हैं... हम फ़त्हयाब होंगे... हम मज़दूर यक़ीनन जीतेंगे। तुम्हारी सोसायटी इतनी ताक़तवर नहीं है, जितनी कि तुम समझ रहे हो यही सरमाया जिसकी हिफ़ाज़त और पैदाइश के लिए सोसायटी लाखों इन्सान क़ुर्बान करती है... यही क़ुव्वत जो उसे हम पर हुकूमत करने का इख़्तियार बख़्शती है। उसके अफ़राद की जिस्मानी-ओ-अख़लाक़ी तबाही का बाइस है। सरमाया के लिए इंतिहाई हिफ़ाज़त दरकार है और दर हक़ीक़त तुम सब हमारे हुक्काम हमसे ज़्यादा ग़ुलाम हो... तुम रुहानी लिहाज़ से गु़लामी की ज़िंदगी बसर करते हो और हम जिस्मानी लिहाज़ से... तुम्हारी क़ुव्वत... तुम्हारा सरमाया तुम्हें कई हिस्सों में तक़सीम कर देता है, जो एक दूसरे को निगलने की कोशिश करता रहता है। हमारी क़ुव्वत एक ज़िंदा ताक़त है। जिसकी बुनियाद मज़दूरों की हमेशा बढ़ने वाली बेदारी है। तुम्हारा हर काम जुर्म से वाबस्ता है। इसलिए कि उसका मक़सद अवाम को गु़लामी के जाल में फँसाना है। हमारा काम दुनिया को उन तमाम मुहीब देवों से निजात दिलाना है जो तुम्हारी हिर्स के पैदा-कर्दा हैं। तुमने लोगों से ज़िंदगी छीन कर उन्हें कुचल दिया है। इश्तिराकीयत तमाम दुनिया को आपस में जोड़ देगी, जो तुम्हारे बोझ तले दबकर शिकस्ता हो चुकी है... और ये ज़रूर होगा!'

    पॉवेल यहां तक पहुंच कर एक लम्हा के लिए ठहरता है वोह फिर आहिस्ता लहजा में कहता है,

    ’और ये ज़रूर होगा!'

    पॉवेल के रोफ़क़ा में एंड्री का किरदार बहुत दिलचस्प है। बात-बात पर मज़ाहिया नोक-झोंक करने में उस को मज़ा आता है। अदालत में पेश है, साइबेरिया के यख़-बस्ता मैदान आँखों के सामने नज़र आ रहे हैं, मगर वो जजों से भी मज़ाक़ करने से बाज़ नहीं आता।

    ’’एंड्री उठा, उसने अपने जिस्म को हरकत दी। जजों की तरफ़ कनखियों से देखा और कहने लगा।

    ’’मुअज़्ज़िज़ मुद्दआ अलैह हज़रात...''

    ’अदालत तुम्हारे सामने है ना कि मुद्दआ अलैह'

    एंड्री के चेहरे और गुफ़्तगू से मालूम होता है कि वो अदालत को तंग करने पर तुला हुआ है। थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद उसने लंबे हाथों से अपने सर को थपका और कहा।

    ’सच-मुच? मगर मेरा ख़्याल कुछ और है तुम जज नहीं हो महज़ मुद्दआ अलैह हो...'

    'ये सुनकर एक जज ख़ुश्क लहजे में पुकारता है।'

    ’अज़-राह-ए -इनायत वही बयान दो जो इस मुक़द्दमा से मुताल्लिक़ है।'

    ’जो मुक़द्दमे से मुताल्लिक़ है? बहुत ख़ूब चलिए मैं ने यक़ीन कर लिया कि आप वाक़ई जज हैं... ख़ुद-इख़्तियार और ईमानदार।'

    ’अदालत ये किरदार-निगारी नहीं चाहती।'

    ’इस किरदार निगारी की ज़रूरत नहीं? अच्छा मैं अपना बयान जारी रखता हूँ... तुम वो अफ़राद हो जो अपने और अजनबियों के दरमियान कोई तमीज़ नहीं करते। तुम आज़ाद हो। अब यहां दो फ़रीक़ तुम्हारे रू-ब-रू खड़े हैं। एक शिकायत करता है। 'मुझे उसने लूट कर बर्बाद कर दिया है।' और दूसरा जवाब देता है। 'मुझे लूटने का हक़ है। इसलिए कि मेरे बाज़ू मौजूद हैं...'

    अदालत फिर उसे ख़ामोश रहने का हुक्म देती है। इसलिए कि वो इस किस्म की गुफ़्तगू सुनना पसंद नहीं करती। अफ़साने का ये मज़ाहिया किरदार चंद और अलफ़ाज़ कहने के बाद अपना बयान बंद कर देता है।

    ’जो आप मालूम करना चाहते हैं वो मेरा रफ़ीक़ बता चुका है... बाक़ी फिर कहा जाएगा... वक़्त पर दूसरे गोश गुज़ार कर देंगे।

    उन सियासी क़ैदियों यानी पॉवेल के रोफ़क़ा में जो साइबेरिया में जिलावतन कर दिए जाते हैं। एक नौजवान का आतिशीं किरदार बहुत एहमियत रखता है। उसके मुख़्तसर बयान की नफ़सियात मुताला करने के बाद हम ब-ख़ूबी अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एक जवाँ क़ल्ब में आज़ादी की आग किस तेज़ी से भड़कती है। उसके साथ ही हम उसके अलफ़ाज़ में कम तजुर्बा-कारी और बचपन की झलक भी देखते हैं।

    ’नन्हा मेज़न शैम्पेन की बोतल के काग की तरह उठा और लरज़ां आवाज़ में कहने लगा,

    ’मैं... मैं क़सम खाता हूँ... मुझे मालूम है। तुमने मुझे मुल्ज़िम क़रार दिया है...' मेज़न का सांस उखड़ गया। और चेहरा ज़र्द पड़ गया। उसकी आँखें उसके तमाम चेहरे को निगलती दिखाई दे रही थीं। थोड़ी देर के बाद वो फिर बुलंद आवाज़ में बोला,

    मैं... अपनी इज़्ज़त की क़सम खाता हूँ कि तुम मुझे ख़्वाह कहीं भेज दो... मैं फ़रार हो जाऊँगा... वापस आ जाऊँगा... हमेशा यही काम करूँगा... अपनी ज़िंदगी-भर... मुझे अपनी इज़्ज़त की क़सम है!'

    माता के तमाम किरदारों से फ़रदन-फ़रदन बहस एक तवील मज़मून की मोहताज है। इस मुख़्तसर मज़मून में हत्ता-अल-वसीअ माता पर हर पहलू से रौशनी डालने की सई की गई है मगर फिर भी ये मज़मून तिश्ना है।

    अब हम गोर्की के फ़न मंज़र-कशी की तरफ़ पलटते हैं। यहां माता में से हम मिसाल के तौर पर चंद मनाज़िर पेश करते हैं जो क़ारईन के लिए यक़ीनन दिलचस्प होंगे।

    माता के मंज़र इफ़्तिताहिया में गोर्की का क़लम कारख़ाना की तरफ़ रुख करने वाले मज़दूरों की तस्वीर इन ज़िंदा अलफ़ाज़ में पेश करता है,

    ’हर-रोज़ कारख़ाने की सीटी, मज़दूरों की ग़लीज़ और धुएं से पुर-फ़िज़ा में काँपती आवाज़ में गिराती, जिस पर भाप के ग़ुलाम अपने छोटे और बदनुमा घरों से निकलना शुरू हो जाते। ग़मगीन चेहरों के साथ वो ख़ौफ़-ज़दा वहशियों की तरह तेज़-क़दम बढ़ाते। उनके आज़ा ना-काफ़ी नींद की वजह से अकड़े होते। सुबह की धुँदली रोशनी में वो तंग-गलियों और कच्ची सड़कों से गुज़रते हुए उस संगीन पिंजरे की तरफ़ बढ़ते जो उनके इस्तिक़बाल का मुंतज़िर होता... जिसकी बीसियों ज़र्द, भद्दी और चौकोर आँखें कीचड़ से भरी हुई सड़क को रौशन कर रही होतीं। कीचड़ के छींटे उनके पैरों पर इस तरह गिरते गोया उनका मज़हका उड़ा रहे हैं। फ़िज़ा भद्दी ख़्वाब-ज़दा आवाज़ों और गालियों से मामूर होती। उनके इस्तिक़बाल के लिए मशीनों की भारी गड़-गड़ाहट और भाप की ग़ैर मुतमइन चीख़ पुकार हवा में तैर रही होती... दराज़-क़ामत दूद-कश धुएं के गहरे और मोटे बादल अपने हलक़ से निकालना शुरू कर देते।'

    ये तो है मज़दूरों की कारख़ानों की तरफ़ रवाना होने की तस्वीर, अब उनकी वापसी का नक़्शा भी गोर्की का मोजिज़-निगार क़लम यूं खींचता है,

    ’शाम को सूरज ग़ुरूब होते वक़्त सुर्ख़ किरनें घरों की खिड़कियों पर चमक रही होतीं। कारख़ाना अपने मज़दूरों को जली हुई राख के मानिंद बाहर फेंक देता। अब वो फिर उन ही बाज़ारों से अपने धुएं में लिपटे हुए चेहरे और गुरुस्ना दाँतों की चमक की नुमाइश करते मशीन के तेल की ग़लीज़ बू को फैलाते गुज़रते, मगर अब उनकी आवाज़ों में ख़ुशी की झलक पाई जाती... मशक़्क़त की सज़ा उस दिन के लिए ख़त्म हो चुकी थी। आराम की चंद घड़ियाँ और रूखा सूखा खाना घर पर उनका इंतिज़ार कर रहा था।

    दिन कारख़ाना निगल गया और मशीन ने उन इन्सानों के आज़ा से हस्ब-ए-ज़रूरत ताक़त चूस ली। इस तरह एक मुकम्मल दिन ज़िंदगी से जज़्ब कर लिया गया जिसका कोई निशान बाक़ी ना रहा।

    मज़दूर उस हैवानी मशक़्क़त के बावजूद क्योंकर ज़िंदा रहता है। इसके जवाब के लिए गोर्की के अलफ़ाज़ मौजूद हैं,

    ’इन्सान ने क़ब्र की तरफ़ क़दम बढ़ाए, मगर जब उसको नज़दीक ही आराम की राहतें और मयख़ानों की मसर्रतें नज़र आएं तो वो मुतमइन हो गया!'

    ये हमें भी मालूम था, मगर गोर्की ने इसी ख़्याल को अपने सहर आफ़रीं अलफ़ाज़ में पेश कर दिया। मुरस्सा अलफ़ाज़ से अपने फ़न की ज़ेबाइश करना... यही गोर्की का राज़ और उसकी फ़क़ीद उल-मिसाल सनअत है। इन अलफ़ाज़ पर सरसरी नज़र डालने के बाद इस सेहर-कार की नाक़ाबिल नक़ल फ़नकारी अयाँ हो जाती है और फिर किसी मज़ीद तफ़सील की हाजत नहीं रहती।

    तअतील के दिनों में गोर्की ने बरगश्ता-ए-बख़त और वाजगों नसीब मज़दूरों की हयात इस पैराए में बयान की है कि एक कम-अक़्ल बच्चा भी ब-ख़ूबी समझ सकता है। दरअसल गोर्की वही बयान करता है जो इससे पेशतर हमारे दिल में मौजूद होता है, मगर उसके अल्फ़ाज़ पहलू में उस सोए हुए एहसास को अपने तरन्नुम से बेदार कर देते है,

    ’तअतील के रोज़ मज़दूर दिन के दस बजे तक सोए रहते। बूढ़े और शादीशुदा लोग बेहतरीन कपड़े पहनकर नौजवानों को गिरजा में इबादत के लिए ना जाने की बिना पर बुरा-भला कहते। पादरी का ख़ुत्बा सुनने के लिए जाते गिरजे से वापिस आकर वो कुछ खा कर फिर सो जाते... शाम के वक़्त वो सड़कों पर आवारा चक्कर लगाते जिनके पास बड़े बूट होते, वो उन्हें पहन लेते ख़्वाह बाज़ार साफ़ ही हो। जिनके पास छाते मौजूद होते वो उन्हें अपने साथ साथ लिए फिरते, ख़्वाह आसमान बिलकुल अब्र-आलूद ना हो।'

    ये पढ़ने के बाद सवाल पैदा होता है कि वो ऐसी निकम्मी चीज़ों की क्यों नुमाइश करते हैं...? गोर्की फ़ौरन ही जवाब देता है।

    ’हर शख़्स यही ख़्वाहिश करता है कि वो किसी तरीक़े से ख़्वाह वो कितना ही मामूली और हक़ीर क्यों ना हो, अपने हमसाए से ज़्यादा मुअज़्ज़िज़ दिखाई दे।' फिर वो उन मज़दूरों की आपस में लड़ने झगड़ने की वजह बयान करता है। कितने सादा अलफ़ाज़ हैं, जो दिल-ओ-दिमाग़ में से गुज़रते रूह में जज़्ब हो जाते हैं,

    ’’रोज़ाना मशक़्क़त से थके हुए लोग शराब का कसरत से इस्तिमाल करते, जिससे उनके दिलों में एक ना-क़ाबिल-ए-बयान बेचैनी पैदा हो जाती जो बाहर निकलने के लिए रास्ता माँगती। इस ख़ामोश ना होने वाले इज़्तिराब का बोझ हल्का करने के लिए वो मामूली से मामूली वाक़ियात को एहमियत देते और वहशियों की तरह हक़ीर से हक़ीर चीज़ पर एक दूसरे से जंग करने लग जाते। ये कीना उनके दिलों में नाक़ाबिल-ए-ईलाज थकान की तरह जो उनके आज़ा में घिर कर चुका था बढ़ता रहता... वो उस रुहानी बीमारी को साथ लेकर पैदा हुए थे जो उन्हें अपने वालिदैन से विरसा में मिली थी।'

    गोर्की इसी जमाअत का एक बरहना-पा व गुरुस्ना शिकम फ़र्द था और वो अब इसी मिल्लत कासिब से बड़ा मुफ़क्किर सेहर-कार मुसव्विर पैग़ाम बर क़िस्सा ख्वां अफ़्साना नवीस और तमसील निगार है,

    गोर्की जिन मुफ़लिस, मुसीबत-ज़दा और बद-चलन रूसियों का हमसे तआरुफ़ कराता है उनकी फ़ित्रत, इज़्ज़त और बुरी आदतों की ज़ंजीरों में ऐसी बुरी तरह जकडी होती है। उनके दिलों को बुरे आमाल और इरादों ने ऐसे सियाह कर रखा है उनके माहौल में बराह-ए-रास्त पर चलने की तरग़ीब दिलाने वाले असरात इतने कम और कमज़ोर हैं कि हमें उनके इन्सान होने में क्या, ज़िंदा रहने पर ताज्जुब होता है लेकिन इन्सानियत की इस इबरत-अंगेज़ बर्बादी में भी एक रौशनी कभी-कभी नज़र आ जाती है। जिस पर अगर अपनी नज़र क़ायम रख सकें तो गोर्की के वीराने आबाद मालूम होने लगते हैं उसके बीमारों में सेहत के वो आसार, मर्दों में ज़िंदगी की वो अलामत ज़ाहिर होने लगती हैं जो हमको यक़ीन दिलाती हैं कि इन्सानियत का जोहर कभी कम नहीं हो सकता उसके दुश्मन उसे चाहे जितना मर्ज़ी छुपाएं वो हमारी नज़रों से बिल्कुल ग़ायब नहीं हो सकता और जब कभी वो नज़र आएगा तो इस शान से कि हम दूसरों की नहीं जबकि अपनी ज़िंदगी में इससे रौशनी पाएँगे। गोर्की ने इन्सानियत का जो जोहर दरियाफ़्त किया है और इन्सानी हमदर्दी है एक जज़्बा जो पस्त हैवानी ज़िंदगी की तारीकी को इस तरह रेज़ा-रेज़ा कर देता है जैसे बिजली काली-घटा के अंधेरे को (मुक़द्दमा गोर्की के अफ़साने, रिसाला उर्दू।)।

      

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