- पुस्तक सूची 186823
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1974
जीवन शैली22 औषधि917 आंदोलन298 नॉवेल / उपन्यास4741 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी13
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर64
- दीवान1460
- दोहा52
- महा-काव्य108
- व्याख्या199
- गीत63
- ग़ज़ल1184
- हाइकु12
- हम्द46
- हास्य-व्यंग37
- संकलन1597
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात691
- माहिया19
- काव्य संग्रह5049
- मर्सिया386
- मसनवी835
- मुसद्दस58
- नात559
- नज़्म1251
- अन्य76
- पहेली16
- क़सीदा189
- क़व्वाली18
- क़ित'अ62
- रुबाई297
- मुख़म्मस17
- रेख़्ती13
- शेष-रचनाएं27
- सलाम33
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई30
- अनुवाद74
- वासोख़्त26
संपूर्ण
परिचय
ई-पुस्तक202
कहानी233
लेख40
उद्धरण107
लघु कथा29
तंज़-ओ-मज़ाह1
रेखाचित्र24
ड्रामा59
अनुवाद2
वीडियो43
गेलरी 4
ब्लॉग5
अन्य
उपन्यासिका1
पत्र10
सआदत हसन मंटो के उद्धरण
लीडर जब आँसू बहा कर लोगों से कहते हैं कि मज़हब ख़तरे में है तो इसमें कोई हक़ीक़त नहीं होती। मज़हब ऐसी चीज़ ही नहीं कि ख़तरे में पड़ सके, अगर किसी बात का ख़तरा है तो वो लीडरों का है जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए मज़हब को ख़तरे में डालते हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मैं बग़ावत चाहता हूँ। हर उस फ़र्द के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ जो हमसे मेहनत कराता है मगर उसके दाम अदा नहीं करता।
आप शहर में ख़ूबसूरत और नफ़ीस गाड़ियाँ देखते हैं... ये ख़ूबसूरत और नफ़ीस गाड़ियाँ कूड़ा करकट उठाने के काम नहीं आ सकतीं। गंदगी और ग़लाज़त उठा कर बाहर फेंकने के लिए और गाड़ियाँ मौजूद हैं जिन्हें आप कम देखते हैं और अगर देखते हैं तो फ़ौरन अपनी नाक पर रूमाल रख लेते हैं... इन गाड़ियों का वुजूद ज़रूरी है और उन औरतों का वुजूद भी ज़रूरी है जो आपकी ग़लाज़त उठाती हैं। अगर ये औरतें ना होतीं तो हमारे सब गली कूचे मर्दों की ग़लीज़ हरकात से भरे होते।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
पहले मज़हब सीनों में होता था आजकल टोपियों में होता है। सियासत भी अब टोपियों में चली आई है। ज़िंदाबाद टोपियाँ।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैं अगर आप इससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये। अगर आप इन अफ़्सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इस का मतलब है कि ये ज़माना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है... मुझ में जो बुराईयाँ हैं, वो इस अह्द की बुराईयां हैं... मेरी तहरीर में कोई नक़्स नहीं। जिस नक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दर असल मौजूदा निज़ाम का नक़्स है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
वेश्या और बा-इस्मत औरत का मुक़ाबला हर्गिज़-हर्गिज़ नहीं करना चाहिए। इन दोनों का मुक़ाबला हो ही नहीं सकता। वेश्या ख़ुद कमाती है और बा-इस्मत औरत के पास कमा कर लाने वाले कई मौजूद होते हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अगर एक ही बार झूट न बोलने और चोरी न करने की तलक़ीन करने पर सारी दुनिया झूट और चोरी से परहेज़ करती तो शायद एक ही पैग़ंबर काफ़ी होता।
-
टैग : समाज
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हिन्दुस्तान को उन लीडरों से बचाओ जो मुल्क की फ़िज़ा बिगाड़ रहे हैं और अवाम को गुमराह कर रहे हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
औरत हाँ और ना का एक निहायत ही दिलचस्प मुरक्कब है। इन्कार और इक़रार कुछ इस तरह औरत के वुजूद में ख़ल्त-मल्त हो गया है कि बाअज़ औक़ात इक़रार-इन्कार मालूम होता है और इन्कार-इक़रार।
-
टैग : लव
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हर औरत वेश्या नहीं होती लेकिन हर वेश्या औरत होती है। इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इन्सानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अगर मैं किसी औरत के सीने का ज़िक्र करना चाहूँगा तो उसे औरत का सीना ही कहूँगा। औरत की छातियों को आप मूंगफ़ली, मेज़ या उस्तुरा नहीं कह सकते... यूँ तो बाअज़ हज़रात के नज़दीक औरत का वुजूद ही फ़ोह्श है, मगर उसका क्या ईलाज हो सकता है?
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हसीन चीज़ एक दायमी मुसर्रत है। आर्ट जहां भी मिले हमें उसकी क़दर करनी चाहिए।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
सोसाइटी के उसूलों के मुताबिक़ मर्द मर्द रहता है ख़्वाह उसकी किताब-ए-ज़िंदगी के हर वर्क़ पर गुनाहों की स्याही लिपि हो। मगर वो औरत जो सिर्फ़ एक मर्तबा जवानी के बे-पनाह जज़्बे के ज़ेर-ए-असर या किसी लालच में आकर या किसी मर्द की ज़बरदस्ती का शिकार हो कर एक लम्हे के लिए अपने रास्ते से हट जाए, औरत नहीं रहती। उसे हक़ारत-ओ-नफ़रत की निगाहों से देखा जाता है। सोसाइटी उस पर वो तमाम दरवाज़े बंद कर देती है जो एक स्याह पेशा मर्द के लिए खुले रहते हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अगर हम साबुन और लैविन्डर का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन मौर्यों और बदरुओं का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जो हमारे बदन का मैल पीती हैं। अगर हम मंदिरों और मस्जिदों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन क़हबा-ख़ानों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जहाँ से लौट कर कई इन्सान मंदिरों और मस्जिदों का रुख़ करते हैं... अगर हम अफ़्यून, चरस, भंग और शराब के ठेकों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन कोठों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जहाँ हर क़िस्म का नशा इस्तिमाल किया जाता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
चक्की पीसने वाली औरत जो दिन-भर काम करती है और रात को इत्मीनान से सो जाती है, मेरे अफ़्सानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी डरावना ख़्वाब देख कर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है... उसके भारी-भारी पपोटे जिन पर बरसों की उचटी हुई नींदें मुंजमिद हो गई हैं, मेरे अफ़्सानों का मौज़ू बन सकते हैं। उसकी ग़लाज़त, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ ये सब मुझे भाती हैं... मैं उनके मुताल्लिक़ लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शुस्ता कलामियों, उनकी सेहत और उनकी नफ़ासत-पसंदी को नज़र-अंदाज़ कर जाता हूँ।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मैं अदब और फ़िल्म को एक ऐसा मय-ख़ाना समझता हूँ, जिसकी बोतलों पर कोई लेबल नहीं होता।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हर हसीन चीज़ इन्सान के दिल में अपनी वक़्अत पैदा कर देती है। ख़्वाह इन्सान ग़ैर-तरबियत-याफ़्ता ही क्यों ना हो?
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ये लोग जिन्हें उर्फ़-ए-आम में लीडर कहा जाता है, सियासत और मज़हब को लंगड़ा, लूला और ज़ख़्मी आदमी तसव्वुर करते हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मैं तहज़ीब-ओ-तमद्दुन और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी... मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इस लिए कि ये मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और भी ज़ियादा नुमायाँ हो जाए। ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़ोह्श-निगारी, तरक़्क़ी-पसंदी और ख़ुदा मालूम क्या कुछ कहा जाता है। लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती।
सियासत और मज़हब की लाश हमारे नामवर लीडर अपने कँधों पर उठाए फिरते हैं और सीधे सादे लोगों को जो हर बात मान लेने के आदी होते हैं ये कहते फिरते हैं कि वो इस लाश को अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी बख़्श रहे हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मुझे नाम निहाद कम्यूनिस्टों से बड़ी चिड़ है। वो लोग मुझे बहुत खलते हैं जो नर्म-नर्म सोफ़ों पर बैठ कर दरांती और हथौड़े की ज़र्बों की बातें करते हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जिस औरत के दरवाज़े शहर के हर उस शख़्स के लिए खुले हैं जो अपनी जेबों में चाँदी के चंद सिक्के रखता हो। ख़्वाह वो मोची हो या भंगी, लंगड़ा हो या लूला, ख़ूबसूरत हो या करीहत-उल-मंज़र, उस की ज़िंदगी का अंदाज़ा ब-ख़ूबी लगाया जा सकता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
याद रखिए वतन की ख़िदमत शिकम-सेर लोग कभी नहीं कर सकेंगे। वज़्नी मेअ्दे के साथ जो शख़्स वतन की ख़िदमत के लिए आगे बढ़े, उसे लात मार कर बाहर निकाल दीजिए।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
वेश्या पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। या ख़ुद बनती है। जिस चीज़ की मांग होगी मंडी में ज़रूर आएगी। मर्द की नफ़सानी ख़्वाहिशात की मांग औरत है। ख़्वाह वो किसी शक्ल में हो। चुनांचे इस मांग का असर ये है कि हर शहर में कोई ना कोई चकला मौजूद है। अगर आज ये मांग दूर हो जाये तो ये चकले ख़ुद बख़ुद ग़ायब हो जाऐंगे।
मर्द का तसव्वुर हमेशा औरतों को इस्मत के तने हुए रस्से पर खड़ा कर देता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मज़हब ख़ुद एक बहुत बड़ा मस्अला है, अगर इस में लपेट कर किसी और मस्अले को देखा जाए तो हमें बहुत ही मग़्ज़-दर्दी करनी पड़ेगी।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
भूक किसी क़िस्म की भी हो, बहुत ख़तरनाक है... आज़ादी के भूकों को अगर गु़लामी की ज़ंजीरें ही पेश की जाती रहीं तो इन्क़िलाब ज़रूर बरपा होगा... रोटी के भूके अगर फ़ाक़े ही खींचते रहे तो वो तंग आकर दूसरे का निवाला ज़रूर छीनेंगे... मर्द की नज़रों को अगर औरत के दीदार का भूका रखा गया तो शायद वो अपने हम-जिंसों और हैवानों ही में उसका अक्स देखने की कोशिश करें।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
याद रखिए ग़ुर्बत लानत नहीं है जो उसे लानत ज़ाहिर करते हैं वो ख़ुद मल्ऊन हैं। वो ग़रीब उस अमीर से लाख दर्जे बेहतर है जो अपनी कश्ती ख़ुद अपने हाथों से खेता है...
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
वेश्या पैदा नहीं होती, बनाई जाती है, या ख़ुद बनती है।
मैं अफ़्साना इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़्साना-निगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है। मैं अफ़्साना ना लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने, या मैंने ग़ुस्ल नहीं किया, या मैंने शराब नहीं पी।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जिस तरह जिस्मानी सेहत बरक़रार रखने के लिए कसरत की ज़रूरत है, ठीक उसी तरह ज़हन की सेहत बरक़रार रखने के लिए ज़हनी वरज़िश की ज़रूरत है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ये लोग जो अपने घरों का निज़ाम दरुस्त नहीं कर सकते, ये लोग जिनका कैरेक्टर बेहद पस्त होता है, सियासत के मैदान में अपने वतन का निज़ाम ठीक करने और लोगों को अख़लाक़ियात का सबक़ देने के लिए निकलते हैं... किस क़दर मज़हका-ख़ेज़ चीज़ है!
आदमी या तो आदमी है वरना आदमी नहीं है, गधा है, मकान है, मेज़ है, या और कोई चीज़ है।
-
टैग : मनुष्य
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
वेश्याओं के इश्क़ में एक ख़ास बात काबिल-ए-ज़िक्र है। उनका इशक़ उनके रोज़मर्रा के मामूल पर बहुत कम असर डालता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
रोटी खाने के मुताल्लिक़ एक मोटा सा उसूल है कि हर लुक़मा अच्छी तरह चबा कर खाओ। लुआब-दहन में उसे ख़ूब हल होने दो ताकि मेअ्दे पर ज़ियादा बोझ ना पड़े और इसकी ग़िजाईयत बरक़रार रहे। पढ़ने के लिए भी यही मोटा उसूल है कि हर लफ़्ज़ को, हर सतर को, हर ख़्याल को अच्छी तरह ज़हन में चबाओ। उस लुआब को जो पढ़ने से तुम्हारे दिमाग़ में पैदा होगा, अच्छी तरह हल करो ताकि जो कुछ तुमने पढ़ा है, अच्छी तरह हज़म हो सके। अगर तुमने ऐसा ना किया तो उस के नताइज बुरे होंगे जिसके लिए तुम लिखने वाले को ज़िम्मेदार ना ठहरा सकोगे। वो रोटी जो अच्छी तरह चबा कर नहीं खाई गई तुम्हारी बद-हज़्मी की ज़िम्मेदार कैसे हो सकती है?
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हिन्दुस्तान में सैकड़ों की तादाद में अख़्बारात-ओ-रसाइल छपते हैं मगर हक़ीक़त ये है कि सहाफ़त इस सरज़मीन में अभी तक पैदा ही नहीं हुई है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
वेश्या का वजूद ख़ुद एक जनाज़ा है जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है। वो उसे जब तक कहीं दफ़्न नहीं करेगा, उसके मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मैं तो बाज़-औक़ात ऐसा महसूस करता हूँ कि हुकूमत और रिआया का रिश्ता रूठे हुए ख़ावंद और बीवी का रिश्ता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
गदागरी क़ानूनन बंद कर दी जाती है, मगर वो अस्बाब-ओ-एलल दूर करने की कोशिश नहीं की जाती जो इन्सान को इस फे़अल पर मजबूर करते हैं। औरतों को सर-ए-बाज़ार जिस्म-फ़रोशी के कारोबार से रोका जाता है मगर उस के मुहर्रिकात के इस्तीसाल की तरफ़ कोई तवज्जाेह नहीं देता।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मौजूदा निज़ाम के तहत जिसकी बागडोर सिर्फ़ मर्दों के हाथ में है, औरत ख़्वाह वो इस्मत फ़रोश हो या बा-इस्मत, हमेशा दबी रही है। मर्द को इख़्तियार होगा कि वो उसके मुताल्लिक़ जो चाहे राय क़ायम करे।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हिन्दी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। मुसलमान, उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं...? ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इन्सानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
कोई अफ़साना या अदब-पारा फ़ोह्श नहीं हो सकता। जब तक लिखने वाले का मक़सद अदब-निगारी है। अदब ब-हैसीयत-ए-अदब के कभी फ़ोह्श नहीं होता।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मेरा ख़्याल है कि कोई भी चीज़ फ़ोह्श नहीं, लेकिन घर की कुर्सी और हांडी भी फ़ोह्श हो सकती है अगर उनको फ़ोह्श तरीक़े पर पेश किया जाए।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
join rekhta family!
-
बाल-साहित्य1974
-