Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

अगर

MORE BYसआदत हसन मंटो

    अगर ये होता तो क्या होता? और अगर ये ना होता तो क्या होता? और अगर कुछ भी ना होता तो फिर क्या होता...? ज़ाहिर है कि इन ख़ुतूत पर हम जितना सोचेंगे, उलझाओ पैदा होते जाएंगे और जैसा यूरोप के एक बड़े मुफ़क्किर ने कहा है, 'ये ना होता तो क्या होता?' के मुताल्लिक़ सोच बिचार करना बिलकुल ला-हासिल है। ये बात एक आम आदमी के नुक़्ता-ए-नज़र से कही गई है और बिलकुल सच है क्योंकि आम आदमी का काम 'अगर' के चक्कर में फँसना नहीं है, इसलिए कि इस में फंस कर वो अपनी हरकत अपनी तवज्जो की शिद्दत और अपने अमल की क़ुव्वत को बिलकुल खो देगा... 'वो जो कुछ कि हो सकता या हो जाता' पर सोच विचार करना 'दिमाग़ी सट्टा बाज़ी' है। क्योंकि इस में भी आदमी अस्पीकोलेशन की भूल भुलैयों में फंस जाता है। आम आदमी का ऐसी बातें सोचना बिलकुल बेकार है, लेकिन फ़लसफ़ी की बात अलग है। वो जब ना-मालूम मुम्किनात की खोज लगाता है तो उसे कुछ ना कुछ ज़रूर हासिल हो जाता है इसलिए कि वो हाल और मुस्तक़बिल दोनों से मुताल्लिक़ है। आरिज़ी और दाइमी दोनों चीज़ों से उसे वास्ता है। इन्सान की मुतबद्दल और ग़ैर-मुतबद्दल दोनों किस्म की आदात उस के पेश-ए-नज़र रहती हैं चुनांचे उस के दिमाग़ में ऐसे सवालों का पैदा होना ज़रूरी है कि अगर फ़लां फ़लां हादिसा वुक़ूअ-पज़ीर ना होता तो ज़माने की रफ़्तार कैसी होती। फ़लां इरादे या फ़ैसले में अगर थोड़ी सी तरमीम होती तो वाक़ियात का रुख़ कैसा होता, अगर फ़लां आदमी मुक़र्ररा वक़्त से कुछ देर पहले या कुछ देर बाद मरता तो ज़िंदगी में क्या तब्दीली पैदा होती।

    ’अगर' की बेशुमार ऐसी शक्लें हो सकती हैं क्योंकि अब तक जो कुछ हुआ है इस को हर रंग में देखा जा सकता है। 'अगर' के मैदान में ऐसे कई घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर अगर हकीम सुक़रात इस मार-धाड़ में जो कि चार-सौ चौबीस साल क़ब्ल अज़ मसीह एथेंज़ के बाशिंदों ने मचाई थी, क़त्ल हो गया होता तो अफ़लातून और अरस्तू का नाम कभी सुनने में ना आता। यूनानी फ़लसफ़े का वजूद तक ना होता और वो सबक़ जो यूरोप की दानिशगाहों में दो हज़ार साल से पढ़ाया जा रहा है, मा'अरज़-ए-वजूद ही में ना आता... इस 'अगर' पर अगर ग़ौर किया जाये तो कितनी दिलचस्प बातों का सिलसिला शुरू हो सकता है। बीते हुए ज़माने का दो हज़ार साल लंबा थान खोल कर उस के तमाम नक़्श-ओ-निगार मिटा कर नए बेल-बूटे बनाना कम दिलचस्प नहीं... और अगर ये सोचा जाये कि अगर क़िलो-पत्रा की नाक एक इंच का आठवां हिस्सा बड़ी या छोटी होती तो क्या होता... ये 'अगर' बहुत मशहूर है और इस पर ग़ौर भी किया जा चुका है। कहते हैं कि अगर क़िलो-पत्रा की नाक एक इंच का आठवां हिस्सा बड़ी या छोटी होती तो ईसाईयों की तारीख़-ए-तमद्दुन बिलकुल मुख़्तलिफ़ होती। मुम्किन है कि बाअज़ लोग औरतों की नाक के साइज़ को इतना अहम ना समझें और किसी ख़ातून की नाक को क़ौमों की क़िस्मत तब्दील करने वाली ना मानें मगर इस बात पर फिर भी बहस हो सकती है कि अगर क़िलो-पत्रा की नाक ज़रा भर बड़ी या छोटी होती तो इस की ख़ूबसूरती में नुमायां फ़र्क़ पैदा हो जाता। अगर उस की ख़ूबसूरती में फ़र्क़ जाता तो वो ना जुलियस सीज़र को और ना मार्क अंतोनी को मस्हूर कर सकती, चुनांचे रोमन हिस्ट्री बिलकुल मुख़्तलिफ़ होती और... ख़ुदा जाने और क्या-क्या कुछ ना होता और क्या-क्या कुछ होता।

    आईए हम चंद तारीख़ी 'अगरों' पर सरसरी नज़र डालें,

    अगर साबिक़ क़ैसर जर्मनी विलियम दोयम और शहिंशाह ऐडवर्ड हफ़्तुम एक दूसरे से दिली नफ़रत ना रखते होते तो सन् चौदह की बड़ी लड़ाई मा'अरज़-ए-वजूद ही में ना आती। कहते हैं कि शहिंशाह ऐडवर्ड को क़ैसर विलियम की ख़ुदबीनी पसंद ना थी। पहली मुलाक़ात ही में उनके दिल नफ़रत के जज़्बात से मामूर हो गए जो सालहा साल तक क़ायम रहे इस दौरान में छोटे छोटे मामूली वाक़ियात भी उनको मुश्तइल करते रहे, चुनांचे काउंटस ऑफ़ दा रॉक ने इस क़िस्म के एक मामूली वाक़ेए का ज़िक्र किया है। बयान किया जाता है कि शहिंशाह ऐडवर्ड और क़ैसर बैठे गुफ़्तगू कर रहे थे कि उनके सामने से जंगी नामा निगार मिल्टन परावर गुज़रा।

    क़ैसर ने पूछा। 'ये मुख़्तसर-सा अजीब-ओ-ग़रीब आदमी कौन है?'

    ऐडवर्ड ने जवाब दिया, 'मशहूर-ओ-मारूफ़ जंगी नामा-निगार मिल्टन परावर'

    क़ैसर ने हिक़ारत-आमेज़ लहजे में कहा, 'ओह... मिल्टन परावर, वो जर्नलिस्ट।'

    शहिंशाह ऐडवर्ड क़ैसर की इस बदतमीज़ी से कबीदा ख़ातिर हो गए और इस को ज़लील करने की ठान ली। 'आप इससे मिलकर यक़ीनन ख़ुश होंगे। शहिंशाह ऐडवर्ड ने इस अंदाज़ में कहा गोया उन्होंने क़ैसर की हिक़ारत आमेज़ गुफ़्तगू का मक़सद ही नहीं समझा।

    इस से पहले कि शहिंशाह ऐडवर्ड का तुंद मिज़ाज भांजा कुछ कह सके। उन्होंने मिल्टन परावर को क़रीब आने का इशारा कर दिया। जब वो पास गया तो शहिंशाह ने यूं तआरुफ़ कराया। ''मिस्टर परावर, क़ैसर ने ख़ाहिश ज़ाहिर की कि मैं तुम्हारी इस से मुलाक़ात कराऊँ।''

    चुनांचे कहा जाता है कि ये शख़्सी मुनाफ़िरत जंग के देवता को मुश्तइल करने का सबब बनी और अंग्रेज़ों से जर्मनी के हसद और नफ़रत की आग का ईंधन बन गई और सन चौदह में जंग-ए-अज़ीम शुरू हो गई।

    अगर नेपल्ज़ में लेडी हमिल्टन ने निल्सन से मुलाक़ात ना की होती और वो इस पर आशिक़ ना हो जाता कि बहुत मुम्किन है नील की जंग कभी वक़अ पज़ीर ना होती।

    इटली का इरादा निल्सन की मदद करने का ना था। उस की राह में रोड़े अटकाने जा रहे थे, लेकिन हुसैन और जादू नज़र ईमा यानी लेडी हमिल्टन ने अपने मुदब्बिर शौहर के पर्दे में ज़ंजीर को हरकत दी और उस के जहाज़ों को सामान रसद फ़राहम करने और मुहिम पर रवाना होने में मदद दी। सिर्फ यही नहीं बल्कि इस ख़ातून ने अपने आशिक़ निल्सन को बहुत सी राज़ की बातें भी मालूम कर के बतलाएं।

    अगर मलिका एलिज़ाबैथ स्पेन के शहिंशाह फ्लिप से शादी करने से इंकार कर देती और मलिका मेरी के परवाना मौत पर दस्तख़त ना करती तो इंग्लिस्तान पर आर्मीडि एवनी स्पेन का ज़बरदस्त जंगी बेड़ा कभी हमला ना करता।

    सियासत की बिसात पर मलिका-ए-इंग्लिस्तान ने शाह-ए-फ़्रांस और शाह-ए-स्पेन को एक दूसरे के मुक़ाबले में अहमक़ बना कर यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट का झगड़ा खड़ा कर दिया। बल्कि मैरी जब क़त्ल हुई तो फ़िलिप का पैमाना सब्र-लबरेज़ हो गया। मैरी ने अपनी वसीयत में फ़िलिप को ताज-ओ-तख़्त का मालिक क़रार दिया था जो इस का सबसे ज़्यादा क़रीबी अज़ीज़ और कैथोलिक था। फ़िलिप के दिल में ख़्याल पैदा हुआ कि अगर इंग्लिस्तान फ़तह हो गया तो यूरोप में कैथोलिक मज़हब का फिर पिछला सा इक़तिदार क़ायम हो जाएगा। बस उसने बग़ैर सोचे समझे आर्मीडि को इंग्लिस्तान फ़तह करने के लिए रवाना कर दिया, लेकिन नतीजा बर-अक्स हुआ और स्पेन की सारी शान-ओ-शौकत ख़ाक में मिल गई।

    अगर शहिंशाह मैक्स मिलियाँ एक मग़रूर और ज़िद्दी औरत से शादी ना करता तो मैक्सिको ख़ूनीं इन्क़िलाब से महफ़ूज़ रहता और साथ ही शहिंशाह की जान बच जाती।

    मैक्सिको के बाशिंदे इस बात के ख़िलाफ़ थे कि उनके वतन पर कोई ग़ैर मुल्की हुकमरान हो। उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नेपोलियन सोएम उन पर मैक्स मिलियन की हुकूमत आइद कर रहा था जिससे उन्होंने यकसर इंकार कर दिया, मैक्स मिलियाँ ने जब देखा कि मुआमलात दिगरगून हो चुके हैं तो उसने चाहा कि तख़्त से दस्तबरदार हो जाये मगर उस की ज़िद्दी और मग़रूर मलिका बीच में हाइल हो गई। उसने अपने ख़ावंद को ग़ैरत दिलाई। ऐसी बातें सिर्फ़ बुड्ढों और अहमक़ों को जे़ब देती हैं... चौंतीस साल के जवान शहिंशाह के लिए ये इंतिहाई ज़िल्लत और बुज़दिली होगी अगर वो तख़्त से दस्तबरदार हो जाये।'

    इस के बाद वो बा-जलत तमाम शहंशाह फ़्रांस के पास आई और नेपोलियन सोइम से फ़ौजी इमदाद की मुल्तजी हुई, लेकिन अमरीका ने नेपोलियन को पहले ही मुतनब्बा कर दिया था, चुनांचे उसने फ़ौजी इमदाद से साफ़ इनकार कर दिया। उधर मलिका इमदाद-ओ-इआनत की फ़िक्र में सरगर्दां थी। उधर मैक्स मिलियाँ उस की फ़ौज सदर दारीज़ के हाथों शिकस्त से शिकस्त खा रही थी। मलिका की ज़िद आख़िर रंग लाई और इस के नेक-दिल शौहर मैक्स मिलियाँ को गिरफ़्तार कर लिया गया और बाद में उसे गोली का निशाना बना दिया गया... कहते हैं कि मलिका को फिर कभी अपने शौहर का मुँह देखना नसीब ना हुआ और मुद्दत तक इस पर ग़म के बाइस दीवानगी की कैफ़ियत तारी रही।

    अगर... ये बड़ा दिलचस्प अगर है... अगर कोलंबस ने अमरीका दरयाफ़त ना किया होता तो ज़ाहिर है किसी और ने दरयाफ़त कर लिया होता क्योंकि पुरानी दुनिया से ये नई दुनिया ज़्यादा दूर नहीं, मगर हमें तो सिर्फ ये सोचना है कि अगर कोलंबस ने ये दुनिया दरयाफ़त ना की होती तो क्या होता... फ़ोर्ड की मोटर-कारें ना होतीं। लीग ऑफ़ नेशनज़ ना होती। अंग्रेज़ों का तंबाकू से तआरुफ़ ना होता और ना आयरिस्तान में आलूओं की काश्त होती... चार्ली चैपलिन जैसा मस्ख़रा ना होता और ये फ़िल्म ना होती।

    फिल्मों और आलूओं को छोड़िए... आप ये सोचिए कि अगर राजा दसरथ के रथ का पहिया ना निकलता तो क्या होता... ज़ाहिर है कि हर साल दसहरे के मौक़ा पर जो रावण जलाया जाता है ना जलाया जाता।

    तारीख़ी बयान है कि जब राजा दसरथ के रथ का पहिया निकल गया तो रानी कैकेयी ने मीख़ की जगह अपनी उंगली दाख़िल कर दी और यूं रथ को बचा लिया। राजा दसरथ अपनी रानी के इस ईसार से बहुत मुतास्सिर हुआ चुनांचे उसने ख़ुश हो कर कहा 'मांग मुझसे क्या माँगती है। 'रानी कैकेयी ने इस वक़्त तो कुछ ना मांगा मगर जब राम चन्द्र जी को गद्दी पर बिठाया जाने लगा तो उसने अपने ख़ावंद को इस का वचन याद दिलाया और कहा 'मेरी ये ख़ाहिश है कि आप राम को चौदह साल के लिए जंगलों में भेज दें और मेरे लड़के भरत को गद्दी पर बिठा दें, चुनांचे राम चन्द्र जी का बन-बास हुआ और उनकी रावण से मार्का-ख़ेज़ जंग हुई।

    इस तरह अगर दर्द पिद्दी तान आमेज़ लहजे में दुर्योधन से ये ना कहती कि आख़िर तुम अंधे ही के लड़के हो। तुम्हें सुझाई कैसे देगा तो बहुत मुम्किन है महाभारत ना लड़ी जाती।

    बयान किया जाता है कि पांडवों के हिस्से में बहुत ख़राब ज़मीन आई थी जिसको उन्होंने बड़ी मेहनत से साफ़ किया और कारीगरी के ऐसे नमूने पैदा किए कि अक़्ल दंग रह जाती है। ऐसा फ़र्श बनाया था कि तालाब मालूम हो और ऐसा तालाब बनाया था जो फ़र्श मालूम हो। पांडवो ने जब कौरवों को अपने यहां दावत दी तो वो सनअत के ये नादिर नमूने देखकर हैरत-ज़दा हो गए। दुर्योधन तो बौखला सा गया। एक फ़र्श को उसने ये समझा कि तालाब है, चुनांचे उसने अपना लिबास ऊपर उड़िस लिया। कहते हैं इस मौक़ा पर दर्द पिद्दी ने ये तानाज़नी की। 'आख़िर तुम अंधे ही के लड़के हो, तुम्हें सुझाई कैसे देगा... चुनांचे ये ताना आगे चल कर महाभारत का मूजिब हुआ।

    अगर चंगेज़ ख़ान पैदा ना होता तो मग़रिब की बेदारी में एक ज़माना सर्फ़ होता, चीनियों को मक़नातीसी सूई का इस्तिमाल एक मुद्दत से आता था मगर नए यूरोप से इस ईजाद का तआरुफ़ चंगेज़ ख़ान के हमलों की बदौलत हुआ। ज़ाहिर है कि अगर क़ुतुबनामा जैसी अहम ईजाद का इल्म सिर्फ चीन तक ही महदूद रहता तो कोलंबस और वास्को डी गामा इतने लंबे समुंद्री सफ़र कभी ना करते, अगर चंगेज़ ख़ान पैदा ना होता तो आज रूस की शक्ल ही और होती क्योंकि वो मंगोलों की गु़लामी से बचा रहता।

    दुश्मन के बहरी बेड़े का खोज लगाने के सिलसिले में जनरल निल्सन माल्टा से मिस्र तक गया। ये 1798 ईं. का ज़िक्र है। 22 जून और 28 जून के दरमयानी अर्से में अंग्रेज़ों का जंगी बेड़े के पास से हो कर गुज़रा मगर उनमें से किसी को एक दूसरे की मौजूदगी का इल्म ना हुआ... बहर-ए-रुम की एक काली रात में दुनिया की सबसे बड़ी 'अगर' देर तक काँपती रही, अगर तरफ़ैन के किसी जहाज़ में रौशनी की हल्की सी शुआअ नज़र जाती, कोई आवाज़ सुनाई दे जाती। कोई फ़ौजी मौज में आकर गीत गा देता और निल्सन को दुश्मन के बहरी बेड़े की मौजूदगी का इलम हो जाता तो दुनिया नेपोलियन के नाम से बिल्कुल ना-आशना होती। इस का नाम जंगी तज़किरों में एक ऐसे जरनैल की हैसियत से लिखा जाता जो काफ़ी अहलियतों का मालिक हो और बस... रूस पर नेपोलियन का ना-काम हमला ना होता और यूं फ़्रांस के एक लाख पच्चीस हज़ार आदमी मारे ना जाते, एक लाख बत्तीस हज़ार आदमी सर्दी और थकावट की भेंट ना चढ़ते और एक लाख तरानवे हज़ार फ़्रांसीसी रूसियों के क़ैदी ना बनते।

    अगर स्टीफ़न चाय की केतली की टूंटी पर चमचा ना रखता तो उसे भाप की ताक़त मालूम ना होती और रेलवे इंजन कभी ना बनता... अगर दरख़्त से सेब ना गिरता तो न्यूटन कशिश-ए-सिक़्ल कैसे दरयाफ़त कर सकता... अगर महात्मा गांधी ना होते तो आज इस वन भूमी को कौन जानता... अगर मारकोनी ना होता तो रेडियो ना होते... अगर हिटलर ना होता तो ये दूसरी जंग-ए-अज़ीम मा'अरज़-ए-वजूद में ना आती, अगर हज़रत-ए-आदम बहिश्त से निकाले ना जाते तो इस दुनिया के बजाय कोई और ही दुनिया होती, अगर कुछ भी ना होता तो ख़ुदा जाने क्या होता और अगर ख़ुदा ना होता तो...

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 74)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए