Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

किसान, मज़दूर, सरमायादार, ज़मीनदार

सआदत हसन मंटो

किसान, मज़दूर, सरमायादार, ज़मीनदार

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    हमारे दो साल के तजुर्बात ने जो हमें क़हत-ज़दा इलाक़ा में इमदादी रक़म तक़सीम करने के दौरान में हासिल हुए हैं, हमारे उन देरीना अफ़्क़ार-ओ-आरा की तसदीक़ कर दी है कि ये मसाइब जिनकी रोक-थाम के लिए हम रूस के एक कोने में बैठ कर बेरूनी ज़राएअ से सई कर रहे हैं। किसी ग़ैर-मुस्तक़िल वजह का नतीजा नहीं हैं, बल्कि उन मुस्तक़िल-ओ-ग़ैर मुख़्ततम अस्बाब-ओ-एलल का नतीजा हैं जो हम तालीम-याफ़ता लोगों के इस ग़ैर बिरादराना-ओ-संग दिलाना सुलूक के पैदा-कर्दा हैं जो ग़रीब मज़दूरों के साथ रवा रखा जाता है।

    ग़ुरबा अपनी मेहनत-ओ-मश्क़्क़त और ला-मुतनाही मसाइब सहने के अल-र्रग़्म हमारे मोहताज हैं और हम इस आक़ाई और मौलाई हैसियत के बावजूद उनसे बे-परवा हैं, अगर इस साल इस एहतियाज, सितम-ज़दगान और भूक (जिसके शिकार लाखों मज़लूम नौजवान और हज़ारों सिसकते हुए बूढ़े और बीसियों बिलकते हुए बच्चे होते हैं) की सितम आफ़रीनियों से हमारे कान ना-आशना हैं तो इसका ये मतलब नहीं है कि ये बलाएं फिर नाज़िल ना होंगी... वो हमारी नज़रों से ओझल रहेंगी और हम उन्हें फ़रामोश कर देंगे। हम अपने आपको यक़ीन दिलाने की कोशिश करेंगे कि उनका वुजूद बाक़ी नहीं रहा और ये कि अगर नाम-ओ-निशाँ बाक़ी है तो ये क़ानून-ए-क़ुदरत है हमें इसमें क्या दख़ल?

    ये यक़ीन-ओ-तयक़्क़ुन दुरूग़-ए-वाफ़ी पर मबनी है। ना सिर्फ इन आफ़त से बचाओ मुम्किन है बल्कि उनका इस्तिसाल ज़रूरी है। वक़्त रहा है कि वो नाबूद होकर रहेंगी और वो वक़्त अब क़रीब-तर है।

    हमें फ़र्र-दावर जमाअतों से अपना शराब से लब्रेज़ पियाला पोशीदा मालूम होता है हम जिद्दी रस्म और चालाक दलाएल ही से ऐश-परस्ती को जायज़ क़रार देते हैं। ऐश-ओ-इशरत की ज़िंदगी उन मज़दूरों के दरिमयान गुज़ारते हैं, जो मेहनत-ओ-मशक़्क़त की तकालीफ़ उठा कर अपने गाड़े पसीना से हमारे लिए ये सामान ऐश मुहय्या करते हैं।

    मगर अब मंशा-ए-इल्म हमारे रिश्तों को मुनव्वर बना रही है और हम बहुत जल्द एक ख़तरनाक मुज्रिम की हैसियत में दुनिया के सामने पेश होंगे... एक ऐसा मुज्रिम जो यकायक तुलू-ए-आफ़ताब की वजह से किसी जुर्म का इर्तिकाब करता पकड़ा जाये।

    अगर एक दुकानदार ज़रर-रसां और ख़राब अशियाँ मज़दूरों के पास फ़रोख़्त करता है या रोटी और दीगर ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी को जिन्हें वो कौड़ियों के मोल ख़रीदे और रूपयों के दाम बेच कर ये दावे करे कि वो ईमानदारी से लोगों की ज़रूरियात मुहैय्या करता है, अगर सिगरेट शराब और आईने बनाने वाला कारख़ाना ये बुलंद बांग दावे करे कि वो मज़दूरों के लिए काम मुहैय्या कर के उनका रोज़ी रसां बना है, अगर कोई अफ़सर जो सालाना हज़ारों पौंड मुशाहिरा हासिल करता है ये यक़ीन दिलाए कि वो क़ौम की ख़िदमत कर रहा है और अगर ज़मींदार ये लाफ़-ज़नी करे कि वो ज़राअत के बेहतरीन उसूलों से अपने गांव में ख़ुशहाली फैला रहा है... अगर ये तमाम चीज़ें आज मुम्किन हैं। ये दावे आज ब-बांग दहल दोहराए जा सकते हैं जबकि हज़ारों ग़रीब किसान भूक से मर रहे हैं और ज़मींदार कई एकड़ ज़मीन में आलू की सिर्फ इस ग़रज़ से काश्त कर रहा है कि उनसे शराब कशीद की जा सके तो कल ये हालात ना रहेंगे और ये दुरूग़ दआवी फ़िज़ा को मुतअफ़्फ़िन ना करेंगे।

    मा-हौलहू फ़ौक़ वुजूह की बिना पर हम ये ख़्याल करने से आरी हो गए हैं कि इन हज़ारों गुरुस्ना-शिकम लोगों को 'जो हमारे गिर्द काम की ज़्यादती और मुआशरे की कमी की वजह से तड़प रहे हैं।' हमारी ज़रूरियात बहम पहुंचाने के लिए नान-ए-ख़ुश्क तक नसीब नहीं होती।

    बाग़ों की रंग-रैलियाँ, शिकार-गाहों की हंगामा आराइयां, शराब-नोशी की मजलिसें। पनीर और गोश्त के टुकड़े तक वो हमारे लिए जाँ-फ़िशानी से मुहैय्या करते हैं और हमारे ऐश की इफ़रात उन पर काम का और भारी बोझ डाल देती है।

    हम रूसी लोग अपनी हक़ीक़त और हालत को समझने की ज़्यादा अहलियत रखते हैं मुझे उस नौजवान का वाक़िया ब-ख़ूबी याद है, जो मुझसे गुज़िश्ता मौसम-ए-सरमा में मिलने आया था। हमें एक किसान के घर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। उस घर में हर तरफ़ मैली कुचैली चीज़ें बिखरी हुई थीं। चीथड़े लटकाए हुई ज़र्द औरतें और बीमार बच्चा जो बिलक रहा था। फ़िज़ा मुतअफ़्फ़िन और कसीफ़ थी। हर तरफ़ उदासी और हसरत बरस रही थी। मुक़ीमों के ज़र्द चेहरे रहम के मुतमन्नी थे।

    मुझे याद है कि जब हम झोंपड़ी से बाहर निकले तो उस नौजवान ने मुझ से कुछ कहना चाहा लेकिन उसकी ज़बान तालू से चिमट गई और उसने रोना शुरू कर दिया।

    वो मास्को और पीटरज़बर्ग में चंद महीने गुज़ार कर आया था। उसने वहां के हसीन बाग़ों की सैर की थी, शानदार महल्लात देखे थे। जहां हर-वक़्त मसर्रतें खेलती हैं और हर तअय्युश पसंद जमाअत में शमूलियत की थी। आज पहली मर्तबा उसने उन लोगों का नक़्शा देखा जो अपने गाड़े पसीने से सामान-ए-ऐश मुहैय्या करते हैं। वो हैरत-ज़दा और हिरासाँ हो गया।

    शायद इस बोहमिया में जो उसका वतन है, जहां दौलत-ओ-सरवत का कोई शुमार नहीं और जहां तालीम आम होने की वजह से हर एक मजलिसी दायरे में शमूलियत हासिल कर सकता है। मशक़्क़त का समरा मालूम हो मगर वो उन हज़ारों लोगों से क़त-ए-नज़र कर के ये नज़रिया क़ायम करता है जो रात कोयले की खानों में मशक़्क़तें उठाते हैं और ये सामान-ए-ऐश मुहय्या करते हैं।

    शायद वो उन लोगों को भी भूल जाये जो हमारी ज़रूरियात को मुहैय्या करने के लिए अपनी जानें क़ुर्बान करते हैं, लेकिन हम रूसी लोग ऐसे ख़्यालात को अपने दिमाग़ में जगह नहीं दे सकते। ऐश और मशक़्क़त का रिश्ता यहां अयाँ-तर है और एक क़ौम के अफ़राद की तय्युश परस्तियां और नादारियाँ हम पर रौशन हैं... हम इस क़ीमत से जो हमारे ऐश-ओ-आराम की ख़ातिर दूसरे इन्सानों को अदा करनी पड़ती है। मुँह नहीं फेर सकते।

    हमारे लिए सूरज तुलूअ हो चुका है और हम हक़ीक़त से इग़्माज़ नहीं कर सकते हम हुकूमत की आड़ ले कर लोगों पर हुकूमत करने की ज़रूरत का उज़्र पेश नहीं कर सकते। साईंस और आर्ट के पर्दे में छिप कर जो कि मौजूदा ज़माने में लाज़िमी तसव्वुर किए जाते हैं, अपनी मिल्कियत के बलबूते पर या जिद्दी रस्म की तक़लीद की वजह बयान करके इन कमज़ोरियों को नहीं छिपा सकते और ना बरक़रार रख सकते हैं।

    आफ़ताब-ए-हक़ीक़त की किरनें उन तमाम पर्दों को चाक कर देंगी... अब हर एक शख़्स जानता है कि जो लोग हुकूमत की ख़िदमत करते हैं वो लोगों के फ़लाह के लिए नहीं बल्कि रुपया बटोरने की ख़ातिर है। वो लोग जो ज़मीन के मालिक हैं और वो अपनी ज़मीन पर काश्त की क़ीमत बढ़ा कर मुक़द्दस हुक़ूक़ के लिए कोशां नहीं बल्कि अपनी ऐश परस्तियों की क़ीमत अदा करने के लिए आमदनी के ख़ाहां हैं... अब ये बातें छुप नहीं सकतीं ये दुरूग़ ता-ब-कै।

    अब अहल-ए-सरवत के लिए दो रास्ते कुशादा हैं... उनके लिए जो कुछ काम नहीं करते मगर सुनहरी अशर्फ़ियों के मालिक हैं। एक रास्ता ये है कि वो मज़हब बल्कि इन्सानियत, इन्साफ़ और इसी किस्म के दूसरे औसाफ़ से मुँह मोड़ कर उन्हें ये कह कर फटकार दें।

    ’मैं इन हुक़ूक़-ओ-फ़वाइद का वाहिद मालिक हूँ और ख़्वाह कुछ भी हो उन्हें किसी हालत में भी नहीं छोड़ूँगा, अगर कोई मुझसे ये अलैहदा करना चाहे तो उसे पहले मेरी ताक़त को ज़ेर-ए-ग़ौर लाना चाहिए... मेरे हाथ में ताक़त है, मैं सिपाही मुहैय्या कर सकता हूँ क़ैद करवा सकता हूँ, दुर्रे लगवा सकता हूँ और तो और फांसी पर लटकवा सकता हूँ।'

    दूसरा रास्ता अपने क़ुसूरों का एतेराफ़, झूट से किनारा-कशी, अफ़्व-ख़्वाही और अवाम की इमदाद के लिए सई है, सिर्फ ज़बानी नहीं जैसा कि इन दो सालों में की गई है बल्कि इस पैसे से जो उनके गाड़े पसीना की कमाई है, मगर उनसे ज़बरदस्ती छीन ली गई है और उन दीवारों को जो हमारे और मज़दूरों के दरमियान ईस्तादा हैं मिस्मार करना है, लफ़्ज़ों से नहीं बल्कि आमाल से उन्हें अपना भाई समझ कर, अपनी ज़िंदगी के मौजूदा तरीक़ों को बदल कर, अपने ज़ाती हुक़ूक़ और फ़वाइद छोड़कर और मज़दूरों के साथ काम कर के साईंस और अदब की बरकात से मुतमत्ते होना है... वो बरकात जो हम बग़ैर उनकी रज़ा के उन पर धकेल रहे हैं।

    हम दो रस्तों के चौक पर खड़े हैं और हमें एक रास्ता इंतिख़ाब करना है।

    एक रास्ता इन्सान को दाइमी बुराइयों और लानतों में मुब्तिला करने के लिए इसमें बद-किरदारों के आश्कारा होने का डर और मौजूदा निज़ाम के बदल जाने का एहतिमाल क़दम क़दम पर नज़र आता है।

    दूसरा रास्ता सच्चे दिल से हक़ीक़ी उसूलों को मान लेने और उनकी तरवीज के लिए बे-लौस कोशिश करने के लिए खुला है... वो उसूल जिनकी तरवीज के लिए इन्सानी अक़ल-ओ-इदराक पुकार रही है और आज या कल ज़रूर मनवा लिए जाने वाले हैं... अगर हम नहीं तो हमारे बाद की आने वाली नस्लें उन्हें मनवा कर रहेंगी। इसलिए कि इस अनानियत का इस्तिहसाल ही इन तमाम बलाओं और आफ़तों से मुल्क और क़ौम को बचा सकता है।

    दुरूग़ बाफ़ियों से एहतिराज़, ताय्युश परस्तियों से परहेज़ और बिरादराना उखुव्वत, उन तमाम बीमारियों की तीर-ए-ब-हदफ़ दवा है।

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 277)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए