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ग़ज़ल
बुतान-ए-महविश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
नज़्म
ईद मिलन के मौ'क़े पर
मेरी दानिस्त में हम-जिंस हैं होली और ईद
दोनों हैं लुत्फ़-ओ-मसर्रत के लिए रोज़-ए-सईद
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
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ग़ज़ल
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
इल्तिजाएँ करने वाले को दुआ से क्या ग़रज़
जिस को हो तुझ से ग़रज़ उस को ख़ुदा से क्या ग़रज़
बिस्मिल सईदी
मीरियात
क्या इश्क़-ए-ख़ाना-सोज़ के दिल में छुपी है आग
इक सारे तन-बदन में मिरे फ़क़ रही है आग
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
बड़ी इबरत की मंज़िल है ज़मीं गोर-ए-ग़रीबाँ की
यहाँ अपनी हक़ीक़त पर नज़र पड़ती है इंसाँ की