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शेर
ज़ुल्फ़ों में किया क़ैद न अबरू से किया क़त्ल
तू ने तो कोई बात न मानी मिरे दिल की
इमाम बख़्श नासिख़
शेर
लड़ा कर आँख उस से हम ने दुश्मन कर लिया अपना
निगह को नाज़ को अंदाज़ को अबरू को मिज़्गाँ को
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
तुम कमाँ क्यूँ लिए फिरते हो अगर तीर नहीं
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
तुम्हारे इश्क़-ए-अबरू में हिलाल-ए-ईद की सूरत
हज़ारों उँगलियाँ उट्ठीं जिधर से हो के हम निकले
किशन कुमार वक़ार
शेर
अबरू आँचल में दुपट्टे के छुपाना है बजा
तुर्क क्या म्यान में रखते नहीं तलवारों को
मर्दान अली खां राना
शेर
नमाज़ियों ने तुझ अबरू को देख मस्जिद में
ब-सम्त-ए-क़िबला सुजूद-ओ-क़याम भूल गए
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
अज़ल से दिल है सज्दा में तिरे अबरू के मस्जिद में
उठाता सर नहीं अब तक नमाज़ी उस को कहते हैं
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
मस्जिद अबरू में तेरी मर्दुमुक है जिऊँ इमाम
मू-ए-मिज़्गाँ मुक़तदी हो मिल के करते हैं नमाज़
सिराज औरंगाबादी
शेर
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए