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शेर
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
अल्लामा इक़बाल
शेर
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
शेर
मिरे अल्फ़ाज़ में उस की हलावत हो गई दाख़िल
मिरे लहजे में शामिल हो गई है गुफ़्तुगू उस की
इरुम ज़ेहरा
शेर
मिरे नक़्श-ए-क़दम पर अहल-ए-दिल का क़ाफ़िला होगा
मैं अपनी राह में ऐसी बग़ावत छोड़ आई हूँ