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शेर
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
ये हसरत रह गई क्या क्या मज़े से ज़िंदगी करते
अगर होता चमन अपना गुल अपना बाग़बाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
शेर
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
ख़ुदा को बाग़बाँ और क़ौम को हम ने शजर जाना
चकबस्त बृज नारायण
शेर
गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
गवारा क्यूँ चमन में रह के ज़ुल्म-ए-बाग़बाँ कर लें
साग़र निज़ामी
शेर
चमन ख़राब किया, हो ख़िज़ाँ का ख़ाना-ख़राब
न गुल रहा है न बुलबुल है बाग़बाँ तन्हा