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शेर
ज़ुबैर रिज़वी
शेर
यूँ गुज़रता है तिरी याद की वादी में ख़याल
ख़ारज़ारों में कोई बरहना-पा हो जैसे
सय्यद एहतिशाम हुसैन
शेर
बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
सरापा रूह का आलम है तेरे जिस्म-ए-उर्यां में
रिन्द लखनवी
शेर
शौक़ बरहना-पा चलता था और रस्ते पथरीले थे
घिसते घिसते घिस गए आख़िर कंकर जो नोकीले थे