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शेर
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
शेर
सख़्त-जानी की बदौलत अब भी हम हैं ताज़ा-दम
ख़ुश्क हो जाते हैं वर्ना पेड़ हिल जाने के बाद
इफ़्तिख़ार राग़िब
शेर
दम न निकला यार की ना-मेहरबानी देख कर
सख़्त हैराँ हूँ मैं अपनी सख़्त-जानी देख कर